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+ | छिनते रहे हमारे कब्जे | ||
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+ | हुए न अपने शाजापुर | ||
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+ | जिनका नहीं विगत उनका भी क्या आगत है? | ||
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+ | अनबन ठनी हुई, अपने पर थू - लानत है | ||
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+ | रातों लगी रतौंधी | ||
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+ | दिन में साफ नहीं कुछ | ||
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+ | अपने विकट पतन का | ||
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+ | दिखता नहीं छोर भी | ||
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+ | विवश भिखारी ठाकुर का | ||
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+ | गब्बर घिचोर भी |
19:09, 24 जून 2009 के समय का अवतरण
खड़े न रह पाये जमकर
हम किसी ठौर भी
लिखा-पढ़ा कुछ काम न आया
किसी तौर भी
रहे बांधते हाथ कामयाबी के सेहरे,
देते रहे पांव अपने गैरों के पहरे
मैं ही एक अकेला जन्तु
नहीं हूं, माना
होंगे मेरे जैसे लागर
कई और भी
रहे जोतते इनके, उनके खेत जनम से
मालिक मकबूजा से मारे हुये भरम के
छिनते रहे हमारे कब्जे
बड़े जतन से
हुए न अपने शाजापुर
मक्सी, पचौर भी
जिनका नहीं विगत उनका भी क्या आगत है?
अनबन ठनी हुई, अपने पर थू - लानत है
रातों लगी रतौंधी
दिन में साफ नहीं कुछ
अपने विकट पतन का
दिखता नहीं छोर भी
विवश भिखारी ठाकुर का
गब्बर घिचोर भी