भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"नज़र लग गई है / नईम" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
|||
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | {{KKGlobal}} | |
− | + | {{KKRachna | |
− | + | |रचनाकार= नईम | |
− | + | }}नज़र लग गई है | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | नज़र लग गई है | + | |
शायद आशीष दुआओं को | शायद आशीष दुआओं को | ||
पंक्ति 41: | पंक्ति 37: | ||
भरने को भरते बैठे घट अब भी मंगल | भरने को भरते बैठे घट अब भी मंगल | ||
− | नदियां सूख रही अंतस बाहर की सारी- | + | नदियां सूख रही |
+ | |||
+ | अंतस बाहर की सारी- | ||
सूखा रोग लग गया शायद | सूखा रोग लग गया शायद | ||
सभी प्रथाओं को। | सभी प्रथाओं को। |
19:09, 24 जून 2009 के समय का अवतरण
नज़र लग गई हैशायद आशीष दुआओं को
रिश्ते खोज रहे हैं अपनी
चची, बुआओं को
नज़रों के आगे फैले बंजर, पठार हैं
डोली की एवज अरथी ढोते कहार हैं
चलो कबीरा घाटों पर स्नान ध्यान कर-
लौटा दें हम महज शाब्दिक
सभी कृपाओं को
सगुन हुए जाते ये निर्गुन ताने-बाने
घूम रहे हैं जाने किस भ्रम में भरमाने?
पड़े हुये क्यों माया ठगिनी के चक्कर में
पाल रहे हैं-
बड़े चाव से हम कुब्जाओं को
रहे न छायादार रूख घर, खेतों, जंगल
भरने को भरते बैठे घट अब भी मंगल
नदियां सूख रही
अंतस बाहर की सारी-
सूखा रोग लग गया शायद सभी प्रथाओं को।