भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"संध्या / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो ()
 
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 4 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
लेखक: [[अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध]]
+
{{KKGlobal}}
[[Category:कविताएँ]]
+
{{KKRachna
[[Category:अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध]]
+
|रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध
 
+
}}
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
{{KKCatKavita}}
 
+
<poem>
 
+
 
दिवस का अवसान समीप था
 
दिवस का अवसान समीप था
 
 
गगन था कुछ लोहित हो चला
 
गगन था कुछ लोहित हो चला
 
 
तरू–शिखा पर थी अब राजती
 
तरू–शिखा पर थी अब राजती
 
 
कमलिनी–कुल–वल्लभ की प्रभा
 
कमलिनी–कुल–वल्लभ की प्रभा
 
  
 
विपिन बीच विहंगम–वृंद का
 
विपिन बीच विहंगम–वृंद का
 
 
कल–निनाद विवधिर्त था हुआ
 
कल–निनाद विवधिर्त था हुआ
 
 
ध्वनिमयी–विविधा–विहगावली
 
ध्वनिमयी–विविधा–विहगावली
 
 
उड़ रही नभ मण्डल मध्य थी
 
उड़ रही नभ मण्डल मध्य थी
 
  
 
अधिक और हुयी नभ लालिमा
 
अधिक और हुयी नभ लालिमा
 
 
दश दिशा अनुरंजित हो गयी
 
दश दिशा अनुरंजित हो गयी
 
 
सकल पादप–पुंज हरीतिमा
 
सकल पादप–पुंज हरीतिमा
 
 
अरूणिमा विनिमज्‍जि‍त सी हुयी
 
अरूणिमा विनिमज्‍जि‍त सी हुयी
 
  
 
झलकने पुलिनो पर भी लगी
 
झलकने पुलिनो पर भी लगी
 
 
गगन के तल की वह लालिमा
 
गगन के तल की वह लालिमा
 
 
सरित और सर के जल में पड़ी
 
सरित और सर के जल में पड़ी
 
 
अरूणता अति ही रमणीय थी।।
 
अरूणता अति ही रमणीय थी।।
 
  
 
अचल के शिखरों पर जा चढ़ी
 
अचल के शिखरों पर जा चढ़ी
 
 
किरण पादप शीश विहारिणी
 
किरण पादप शीश विहारिणी
 
 
तरणि बिंब तिरोहित हो चला
 
तरणि बिंब तिरोहित हो चला
 
 
गगन मंडल मध्य शनै: शनै:।।
 
गगन मंडल मध्य शनै: शनै:।।
 
  
 
ध्वनिमयी करके गिरि कंदरा
 
ध्वनिमयी करके गिरि कंदरा
 
 
कलित कानन केलि निकुंज को
 
कलित कानन केलि निकुंज को
 
 
मुरलि एक बजी इस काल ही
 
मुरलि एक बजी इस काल ही
 
 
तरणिजा तट राजित कुंज में।।
 
तरणिजा तट राजित कुंज में।।
  
 
+
(यह अंश ‘प्रिय प्रवास’ से लिया गया है)
 
+
</poem>
प्रिय प्रवास से लिया गया है
+

00:37, 10 अगस्त 2010 के समय का अवतरण

दिवस का अवसान समीप था
गगन था कुछ लोहित हो चला
तरू–शिखा पर थी अब राजती
कमलिनी–कुल–वल्लभ की प्रभा

विपिन बीच विहंगम–वृंद का
कल–निनाद विवधिर्त था हुआ
ध्वनिमयी–विविधा–विहगावली
उड़ रही नभ मण्डल मध्य थी

अधिक और हुयी नभ लालिमा
दश दिशा अनुरंजित हो गयी
सकल पादप–पुंज हरीतिमा
अरूणिमा विनिमज्‍जि‍त सी हुयी

झलकने पुलिनो पर भी लगी
गगन के तल की वह लालिमा
सरित और सर के जल में पड़ी
अरूणता अति ही रमणीय थी।।

अचल के शिखरों पर जा चढ़ी
किरण पादप शीश विहारिणी
तरणि बिंब तिरोहित हो चला
गगन मंडल मध्य शनै: शनै:।।

ध्वनिमयी करके गिरि कंदरा
कलित कानन केलि निकुंज को
मुरलि एक बजी इस काल ही
तरणिजा तट राजित कुंज में।।

(यह अंश ‘प्रिय प्रवास’ से लिया गया है)