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"संहिता के व्यूह में / अमरनाथ श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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जहां आंखों में रहा, आकाश का विस्तार मेरा
 
जहां आंखों में रहा, आकाश का विस्तार मेरा
 
 
वहीं मेरे पांव छूकर रोकता आधार मेरा
 
वहीं मेरे पांव छूकर रोकता आधार मेरा
 
  
 
फूल की कोमल पंखुरियों में
 
फूल की कोमल पंखुरियों में
 
 
बसी रंगत गुलाबी
 
बसी रंगत गुलाबी
 
 
किसी युग का सत्य होगी
 
किसी युग का सत्य होगी
 
 
किन्तु अब तो है किताबी
 
किन्तु अब तो है किताबी
 
 
इन्द्रधनु आश्लेष उजले
 
इन्द्रधनु आश्लेष उजले
 
 
लिपि उड़ी संदेश उजले
 
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तूलिका ने रंग खोकर रचा है आकार मेरा
 
तूलिका ने रंग खोकर रचा है आकार मेरा
 
  
 
दूर तक फैले हुए
 
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अनुभाव हैं संक्षेप इतने
 
अनुभाव हैं संक्षेप इतने
 
 
रेत पर आकर उतरते
 
रेत पर आकर उतरते
 
 
नदी के प्रक्षेप जितने
 
नदी के प्रक्षेप जितने
 
 
पंख तितली की छुवन के
 
पंख तितली की छुवन के
 
 
फूल भूला देह अपनी
 
फूल भूला देह अपनी
 
 
हो गया अव्यक्त निर्गुण गुणों का संसार मेरा।
 
हो गया अव्यक्त निर्गुण गुणों का संसार मेरा।
 
  
 
मुझे मुझसे जोड़ता है
 
मुझे मुझसे जोड़ता है
 
 
एक दर्पण मुंह अंधेरे
 
एक दर्पण मुंह अंधेरे
 
 
राग के, संवेग के
 
राग के, संवेग के
 
 
जितने विपर्यय सभी मेरे
 
जितने विपर्यय सभी मेरे
 
 
रिक्त थी मेरी जहां
 
रिक्त थी मेरी जहां
 
 
अब नवचषक मधु के भरे हैं
 
अब नवचषक मधु के भरे हैं
 
 
विघ्न ही माना गया पहुचा अगर आभार मेरा
 
विघ्न ही माना गया पहुचा अगर आभार मेरा
 
  
 
मैं वही शिल्पी, किसी -
 
मैं वही शिल्पी, किसी -
 
 
कोणार्क ने जिसको रचा है
 
कोणार्क ने जिसको रचा है
 
 
सोचता हूं इस सृजन में
 
सोचता हूं इस सृजन में
 
 
कहां कुछ मेरा बचा है
 
कहां कुछ मेरा बचा है
 
 
जब कभी स्थापना की
 
जब कभी स्थापना की
 
 
भूमि से विचलित हुआ तो
 
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संहिता के व्यूह में फिर आ गया आचार मेरा।
 
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23:57, 4 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

जहां आंखों में रहा, आकाश का विस्तार मेरा
वहीं मेरे पांव छूकर रोकता आधार मेरा

फूल की कोमल पंखुरियों में
बसी रंगत गुलाबी
किसी युग का सत्य होगी
किन्तु अब तो है किताबी
इन्द्रधनु आश्लेष उजले
लिपि उड़ी संदेश उजले
तूलिका ने रंग खोकर रचा है आकार मेरा

दूर तक फैले हुए
अनुभाव हैं संक्षेप इतने
रेत पर आकर उतरते
नदी के प्रक्षेप जितने
पंख तितली की छुवन के
फूल भूला देह अपनी
हो गया अव्यक्त निर्गुण गुणों का संसार मेरा।

मुझे मुझसे जोड़ता है
एक दर्पण मुंह अंधेरे
राग के, संवेग के
जितने विपर्यय सभी मेरे
रिक्त थी मेरी जहां
अब नवचषक मधु के भरे हैं
विघ्न ही माना गया पहुचा अगर आभार मेरा

मैं वही शिल्पी, किसी -
कोणार्क ने जिसको रचा है
सोचता हूं इस सृजन में
कहां कुछ मेरा बचा है
जब कभी स्थापना की
भूमि से विचलित हुआ तो
संहिता के व्यूह में फिर आ गया आचार मेरा।