भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"प्यादे से वज़ीर / अमरनाथ श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=अमरनाथ श्रीवास्तव
 
|रचनाकार=अमरनाथ श्रीवास्तव
 
}}
 
}}
 
+
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 
प्यादे से वज़ीर बनते हैं ऐसी बिछी बिसात
 
प्यादे से वज़ीर बनते हैं ऐसी बिछी बिसात
 
+
नए भोर का भ्रम देती है निखर गई है रात
नये भोर का भ्रम देती है निखर गयी है रात
+
 
+
  
 
कई एक चेहरे, चेहरों के
 
कई एक चेहरे, चेहरों के
 
+
त्रास और सन्त्रास
त्रास औस संत्रास
+
 
+
 
भीतर तक भय से भर देते
 
भीतर तक भय से भर देते
 
 
हास और परिहास
 
हास और परिहास
 +
नहीं बचा `साबुत' क़द कोई ऐसा उपल निपात
  
नहीं बचा `साबुत' कद कोई ऐसा उपल निपात
+
बन्द गली के सन्नाटों में  
 
+
 
+
बंद गली के सन्नाटों में  
+
 
+
 
कोई दस्तक जैसी
 
कोई दस्तक जैसी
 
 
भर देती हैं खालीपन से
 
भर देती हैं खालीपन से
 
 
बातें कैसी-कैसी
 
बातें कैसी-कैसी
 +
नई-नई अनुगूँजें बनते नए-नए अनुपात
  
नयी-नयी अनुगूंजें बनते नये-नये अनुपात
+
लोककथाएँ जिनमें पीड़ा
 
+
 
+
लोककथायें जिनमें पीड़ा
+
 
+
 
का अनन्त विस्तार
 
का अनन्त विस्तार
 
 
हम ऐसे अभ्यस्त कि
 
हम ऐसे अभ्यस्त कि
 
 
खलता कोई भी निस्तार
 
खलता कोई भी निस्तार
 
+
बातों से बातें उठती हैं सब भूले औकात ।
बातों से बातें उठती हैं सब भूले औकात।
+
</poem>

20:14, 27 मार्च 2014 के समय का अवतरण

प्यादे से वज़ीर बनते हैं ऐसी बिछी बिसात
नए भोर का भ्रम देती है निखर गई है रात

कई एक चेहरे, चेहरों के
त्रास और सन्त्रास
भीतर तक भय से भर देते
हास और परिहास
नहीं बचा `साबुत' क़द कोई ऐसा उपल निपात

बन्द गली के सन्नाटों में
कोई दस्तक जैसी
भर देती हैं खालीपन से
बातें कैसी-कैसी
नई-नई अनुगूँजें बनते नए-नए अनुपात

लोककथाएँ जिनमें पीड़ा
का अनन्त विस्तार
हम ऐसे अभ्यस्त कि
खलता कोई भी निस्तार
बातों से बातें उठती हैं सब भूले औकात ।