भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जीवन की आपाधापी में / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 6 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
 
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
 +
|अनुवादक=
 +
|संग्रह=मिलन यामिनी / हरिवंशराय बच्चन
 
}}
 
}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला<br>
+
<poem>
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,<br>
+
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।<br>
+
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
 +
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
  
 +
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैनें देखा,
 +
मैं खड़ा हुआ हूँ दुनिया के इस मेले में,
 +
हर एक यहां पर एक भुलावे में भूला,
 +
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में,
 +
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौंचक्का सा,
 +
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जगह?
 +
फ़िर एक तरफ़ से आया ही तो धक्का सा,
 +
मैनें भी बहना शुरु किया उस रेले में,
 +
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
 +
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
 +
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
 +
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
 +
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
 +
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ,
 +
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
  
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैनें देखा,<br>
+
मेला जितना भडकीला रंग-रंगीला था,
मैं खडा हुआ हूं दुनिया के इस मेले में,<br>
+
मानस के अंदर उतनी ही कमज़ोरी थी,
हर एक यहां पर एक भुलाने में भूला,<br>
+
जितना ज़्यादा संचित करने की ख्वाहिश थी,
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में,<br>
+
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
कुछ देर रहा हक्क-बक्क, भौंचक्का सा,<br>
+
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
आ गया कंहा, क्या करुं यहां, जाऊं किस जगह?<br>
+
उतना ही रेले तेज़ ढकेले जाते थे,
फ़िर एक तरफ़ से आया ही तो धक्का सा,<br>
+
क्रय-विक्रय तो ठंडे दिल से हो सकता है,
मैनें भी बहना शुरु किया उस रेले में,<br>
+
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,<br>
+
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊं,
जो भीतर भी भावों का उहापोह मचा,<br>
+
क्या मान अकिंचन पथ पर बिखरता आया,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,<br>
+
वह कौन रतन अनमोल मिला मुझको
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,<br>
+
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला<br>
+
यह थी तकदीरी बात, मुझे गुण-दोष ना दो
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,<br>
+
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।<br>
+
जिसको समझा था आंसू, वह मोती निकला
 
+
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
 
+
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
मेला जितना भडकीला रंग-रंगीला था,<br>
+
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
मानस के अंदर उतनी ही कमज़ोरी थी,<br>
+
जितना ज़्यादा संचित करने की ख्वाहिश थी,<br>
+
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,<br>
+
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,<br>
+
उतना ही रेले तेज़ ढकेले जाते थे,<br>
+
क्रय-विक्रय तो ठंडे दिल से हो सकता है,<br>
+
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;<br>
+
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊं,<br>
+
क्या मान अकिंचन पथ पर बिखरता आया,<br>
+
वह कौन रतन अनमोल मिला मुझको<br>
+
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,<br>
+
यह थी तकदीरी बात, मुझे गुण-दोष ना दो<br>
+
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,<br>
+
जिसको समझा था आंसू, वह मोती निकला<br>
+
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला<br>
+
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,<br>
+
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।<br>
+
 
+
  
मैं कितना ही भूलूं, भटकूं या भरमाऊं,<br>
+
मैं कितना ही भूलूं, भटकूं या भरमाऊं,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,<br>
+
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पांव पडे, ऊंचे-नीचे,<br>
+
कितने ही मेरे पांव पड़ें, ऊंचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,<br>
+
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत सी बातों का,<br>
+
मुझ पर विधि का आभार बहुत सी बातों का,
पर मैं क्रितग्य उसका इस पर सबसे ज़्यादा -<br>
+
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,<br>
+
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,<br>
+
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहां खडा था कल, उस थल पर आज नही,<br>
+
मैं जहां खडा था कल, उस थल पर आज नही,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,<br>
+
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं,<br>
+
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं,
वे छू कर ही काल-देश की सीमाएं,<br>
+
वे छू कर ही काल-देश की सीमाएं,
जग दे मुझ पर फ़ैसला जैसा उसे भाए,<br>
+
जग दे मुझ पर फ़ैसला जैसा उसे भाए,
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के,<br>
+
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के,
इस एक और पहलू से होकर निकल चला,<br>
+
इस एक और पहलू से होकर निकल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला<br>
+
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,<br>
+
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
 
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
 
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।
 +
</poem>

22:11, 26 जुलाई 2020 के समय का अवतरण

जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।

जिस दिन मेरी चेतना जगी मैनें देखा,
मैं खड़ा हुआ हूँ दुनिया के इस मेले में,
हर एक यहां पर एक भुलावे में भूला,
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में,
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौंचक्का सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जगह?
फ़िर एक तरफ़ से आया ही तो धक्का सा,
मैनें भी बहना शुरु किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।

मेला जितना भडकीला रंग-रंगीला था,
मानस के अंदर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज़ ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठंडे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊं,
क्या मान अकिंचन पथ पर बिखरता आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला मुझको
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात, मुझे गुण-दोष ना दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आंसू, वह मोती निकला
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।

मैं कितना ही भूलूं, भटकूं या भरमाऊं,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पांव पड़ें, ऊंचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत सी बातों का,
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहां खडा था कल, उस थल पर आज नही,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं,
वे छू कर ही काल-देश की सीमाएं,
जग दे मुझ पर फ़ैसला जैसा उसे भाए,
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के,
इस एक और पहलू से होकर निकल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,
जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।