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"रक्त झर-झर... / हरजेन्द्र चौधरी" के अवतरणों में अंतर

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अभी तो टपक ही रहे हैं
 
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टपकते ही जा रहे हैं
 
टपकते ही जा रहे हैं

12:46, 24 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

बन्द होगा बन्द होगा
अभी बन्द होगा रक्त रिसना
बन्द होगा बन्द होगा
अभी बन्द होगा क़लम घिसना
...इस उम्मीद में
अभी तो टपक ही रहे हैं
टपकते ही जा रहे हैं
आत्मा के प्राचीन घाव
जो मुझे याद नहीं
समय की फ़र्राटेदार सड़क पर
किस दुर्घटना से मिले थे

टीस नहीं रहे इस क्षण
केवल टपक रहे हैं

निचुड़ रहा है रक्त
देह और आत्मा का
आ रही है कविता झर-झर...


रचनाकाल : जनवरी 1999, नई दिल्ली