"असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 2" के अवतरणों में अंतर
पंक्ति 10: | पंक्ति 10: | ||
}} | }} | ||
− | [[चित्र: | + | [[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]] |
<poem> | <poem> | ||
सौंप रहा था उसी किरीटी-तरु को | सौंप रहा था उसी किरीटी-तरु को | ||
पंक्ति 38: | पंक्ति 38: | ||
डाली-डाली को कँपा गयी-- | डाली-डाली को कँपा गयी-- | ||
− | [[चित्र: | + | [[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]] |
ओ दीर्घकाय! | ओ दीर्घकाय! | ||
पंक्ति 66: | पंक्ति 66: | ||
पुलक में डूब जाय : | पुलक में डूब जाय : | ||
− | [[चित्र: | + | [[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]] |
[[असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 3|अगला भाग >>]] | [[असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 3|अगला भाग >>]] | ||
</poem> | </poem> |
21:25, 10 मई 2011 के समय का अवतरण
सौंप रहा था उसी किरीटी-तरु को
कौन प्रियंवद है कि दंभ कर
इस अभिमन्त्रित कारुवाद्य के सम्मुख आवे?
कौन बजावे
यह वीणा जो स्वंय एक जीवन-भर की साधना रही?
भूल गया था केश-कम्बली राज-सभा को :
कम्बल पर अभिमन्त्रित एक अकेलेपन में डूब गया था
जिसमें साक्षी के आगे था
जीवित रही किरीटी-तरु
जिसकी जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित,
जिसके कन्धों पर बादल सोते थे
और कान में जिसके हिमगिरी कहते थे अपने रहस्य।
सम्बोधित कर उस तरु को, करता था
नीरव एकालाप प्रियंवद।
"ओ विशाल तरु!
शत सहस्र पल्लवन-पतझरों ने जिसका नित रूप सँवारा,
कितनी बरसातों कितने खद्योतों ने आरती उतारी,
दिन भौंरे कर गये गुंजरित,
रातों में झिल्ली ने
अनथक मंगल-गान सुनाये,
साँझ सवेरे अनगिन
अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीड़ा काकलि
डाली-डाली को कँपा गयी--
ओ दीर्घकाय!
ओ पूरे झारखंड के अग्रज,
तात, सखा, गुरु, आश्रय,
त्राता महच्छाय,
ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के
वृन्दगान के मूर्त रूप,
मैं तुझे सुनूँ,
देखूँ, ध्याऊँ
अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक :
कहाँ साहस पाऊँ
छू सकूँ तुझे !
तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गयी वीणा को
किस स्पर्धा से
हाथ करें आघात
छीनने को तारों से
एक चोट में वह संचित संगीत जिसे रचने में
स्वंय न जाने कितनों के स्पन्दित प्राण रचे गये।
"नहीं, नहीं ! वीणा यह मेरी गोद रही है, रहे,
किन्तु मैं ही तो
तेरी गोदी बैठा मोद-भरा बालक हूँ,
तो तरु-तात ! सँभाल मुझे,
मेरी हर किलक
पुलक में डूब जाय :
अगला भाग >>