"सन्ध्या-संकल्प / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
| पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna  | {{KKRachna  | ||
|रचनाकार=अज्ञेय  | |रचनाकार=अज्ञेय  | ||
| − | |संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय  | + | |संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय; सुनहरे शैवाल / अज्ञेय  | 
}}    | }}    | ||
{{KKCatKavita}}  | {{KKCatKavita}}  | ||
10:47, 13 अगस्त 2012 के समय का अवतरण
यह सूरज का जपा-फूल
नैवेद्य चढ़ चला
सागर-हाथों
अम्बा तिरमिरायी को:
रुको साँस-भर,
फिर मैं यह पूजा-क्षण
तुम को दे दूँगा।
क्षण अमोघ है, इतना मैंने
पहले भी पहचाना है
इस लिए साँझ को नश्वरता से नहीं बांधता।
किन्तु दान भी है अमोघ, अनिवार्य,
धर्म:
यह लोकालय में
धीरे-धीरे जान रहा हूँ
(अनुभव के सोपान!) 
और
दान वह मेरा एक तुम्हीं को है।
यह एकोन्मुख तिरोभाव—
इतना-भर मेरा एकान्त निजी है—
मेरा अर्जित:
वही दे रहा हूँ
ओ मेरे राग-सत्य!
मैं 
तुम्हें।
ऐसे तो हैं अनेक 
जिन के द्वारा
मैं जिया गया;
ऐसा है बहुत
जिसे मैं दिया गया।
यह इतना
मैंने दिया।
अल्प यह लय-क्षण
मैंने जिया।
आह, यह विस्मय!
उसे तुम्हें दे सकता हूँ मैं।
उसे दिया।
इस पूजा-क्षण में
सहज, स्वतः प्रेरित
मैंने संकल्प किया।
६ मार्च १९६३
	
	