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"उलझन / महादेवी वर्मा" के अवतरणों में अंतर
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:::जिसमें उनकी छाया भी, | :::जिसमें उनकी छाया भी, | ||
:::मैं छू न सकूँ अकुलाऊँ। | :::मैं छू न सकूँ अकुलाऊँ। | ||
− | + | वे चुपके से मानस में, | |
+ | आ छिपते उच्छवासें बन; | ||
+ | जिसमें उनको सांसो में, | ||
+ | देखूँ पर रोक न पाऊँ। | ||
+ | :::वे स्मृति बनकर मानस में, | ||
+ | :::खटका करते हैं निशिदिन; | ||
+ | :::उनकी इस निष्ठुरता को, | ||
+ | :::जिसमें मैं भूल न जाऊँ। | ||
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23:01, 9 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
अलि कैसे उनको पाऊँ?
वे आँसू बनकर मेरे,
इस कारण ढुल ढुल जाते,
इन पलकों के बन्धन में,
मैं बांध बांध पछताऊँ।
मेघों में विद्युत सी छवि,
उनकी बनकर मिट जाती,
आँखों की चित्रपटी में,
जिसमें मैं आंक न पाऊँ।
वे आभा बन खो जाते,
शशि किरणों की उलझन में;
जिसमें उनको कण कण में
ढूँढूँ पहिचान न पाऊँ।
सोते सागर की धड़कन--
बन, लहरों की थपकी से;
अपनी यह करुण कहानी,
जिसमें उनको न सुनाऊँ।
वे तारक बालाओं की,
अपलक चितवन बन आते;
जिसमें उनकी छाया भी,
मैं छू न सकूँ अकुलाऊँ।
वे चुपके से मानस में,
आ छिपते उच्छवासें बन;
जिसमें उनको सांसो में,
देखूँ पर रोक न पाऊँ।
वे स्मृति बनकर मानस में,
खटका करते हैं निशिदिन;
उनकी इस निष्ठुरता को,
जिसमें मैं भूल न जाऊँ।