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"चान्दमारी / नरेन्द्र जैन" के अवतरणों में अंतर

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नरेन्द्र जैन की पांच कविताएं
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चांदमारी
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चांदमारी एक खास जगह होती है
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चान्दमारी एक ख़ास जगह होती है
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जहाँ खड़े किये गये नकली पुतलों को
 
गोली मारी जाती है
 
गोली मारी जाती है
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कोई न कोई होता ही है
 
कोई न कोई होता ही है
 
निशाने की जद में
 
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इधर कला और संस्कृति और साहित्य के
 
इधर कला और संस्कृति और साहित्य के
 
प्रभुतासम्पन्न केन्द्र विकसित किये जा रहे
 
प्रभुतासम्पन्न केन्द्र विकसित किये जा रहे
 
चांदमारी के लिए
 
चांदमारी के लिए
 
शिकार की खोज जारी रहती है
 
शिकार की खोज जारी रहती है
खास किस्म का वातावरण
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ख़ास किस्म का वातावरण
 
हवा और धूप भी
 
हवा और धूप भी
 
खास कोण से बहती और उतरती
 
खास कोण से बहती और उतरती
एक खास किस्म के वैचारिक सद्भाव पर दिया जाता बल
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एक खास किस्म के वैचारिक सद्‍भाव पर दिया जाता बल
 
प्रकारांतर से एक खास लक्ष्य की ओर रहते अग्रसर
 
प्रकारांतर से एक खास लक्ष्य की ओर रहते अग्रसर
कविताएं
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ूूूण्जंकइींअण्बवउ
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यहाँ जब सम्पन्न होती चांदमारी
यहां जब सम्पन्न होती चांदमारी
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गोलियों की आवाज़ें सुनाई नहीं देतीं
गोलियों की आवाजें सुनायी नहीं देतीं
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निहायत ही ख़ास ढंग से मारा जाता कोई
निहायत ही खास ढंग से मारा जाता कोई
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किसी को आभास तक नहीं होता
 
किसी को आभास तक नहीं होता
और आंखें निकाल ले जाते वे
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और आँखें निकाल ले जाते वे
 
वे इसे नयी दृष्टि का विकसित होना कहते हैं
 
वे इसे नयी दृष्टि का विकसित होना कहते हैं
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वे यकीन नहीं करते
 
वे यकीन नहीं करते
 
गोली मार देने जैसे तरीकों में
 
गोली मार देने जैसे तरीकों में
वे भाषा में संेध लगाते हैं
+
वे भाषा में सेंध लगाते हैं
 
और निर्वासित करते किसी को
 
और निर्वासित करते किसी को
 
भाषा के जीवंत कालखंड से
 
भाषा के जीवंत कालखंड से
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जिस्म पर नहीं आती कोई खरोंच
 
जिस्म पर नहीं आती कोई खरोंच
 
लेकिन बहुत से विचार हताहत होते हैं
 
लेकिन बहुत से विचार हताहत होते हैं
यहां से गुजर कर भी
+
 
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यहाँ से गुज़र कर भी
 
नयी शक्ल में आ रहे
 
नयी शक्ल में आ रहे
 
कुछ विचार।
 
कुछ विचार।
घास का रंग
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घास कमर तक उ$ंची हो आयी है
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हरी और ताजा
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जब हवा चलती है घास जमीन पर बिछ बिछ जाती है
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वह दोबारा उठ खड़ी होती है
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हाथ में दरांती लिए वह एक कोने में बैठा है
+
घास का एक गठ्ठर तैयार कर चुका वह
+
नीम, अमरूद, जाटौन, केवड़ा, तुलसी आदि के पौधे
+
उसके आसपास हैं वह सब उसे घास काटते देख रहे
+
कभी कभार तोते आते हैं अमरूद पर वे कुछ फल
+
कुतरते हैं और उड़ जाते हैं उनका रंग और घास का
+
रंग एक है। बरामदे में कहीं चिड़िया चहकती है कभी
+
हवा के बहते ही पीतल की घंटियां बजने लगती हैं
+
ूूूण्जंकइींअण्बवउ
+
हवा है कि मिला जुला संगीत बहता है, दरांती की
+
आवाज, दरवाजे के पल्ले की आवाज, वाहन की यांत्रिक ध्वनि
+
और कभी लोहे पर पड़ती हथौड़े की आवाज, गोया दरांती,
+
हथौड़ा, पल्ला सब वाद्य हैं और धुन बजा रहे हैं
+
घास काटते काटते अब वह गुनगुना रहा कोई गीत है
+
या कोई दोहा, स्वर धीमा है, घास जरूर उसे सुन रही।
+
गली से अभी अभी वह गुजरा है जिसके कंधों पर
+
बहुत से ढोलक हैं, उसकी अंगुलियां सतत ढोलक बजा
+
रहीं। कद्दू, लौकी, गिलकी और तुरही की बेलों का
+
हरा जाल अब ढोलक सुन रहा, हर कहीं हवा और
+
धूप का साम्राज्य फैला है। पत्थर की एक मेज के आसपास
+
कोई नहीं है। मेज के पायों से चीटियों का मौन जुलूस
+
निकल रहा है, सृष्टि का सबसे मौन जुलूस, एक अंतहीन
+
मानव शृंखला आगे बढ़ी जा रही है जैसे
+
कभी कभार जब सन्नाटा छाया रहता है, मेज के पास
+
एक शख्स बैठा पाया जाता है। जब धूप की शहतीर
+
आसमान की सीध से नीचे गिरती है, धूप का
+
प्रतिबिम्ब उसके प्याले में दिखलायी देता है।
+
सूखी नदी
+
यहां से करीब ही
+
बहती है
+
सूखी हुई नदी
+
यहां बैठे बैठे सुनता हूं
+
सूखी नदी की लहरों का शोर
+
देखता हूं एक नौका
+
जो सूखी नदी की लहरों में बढ़ी जा रही
+
एक सूखी नदी
+
जीवंत नदी की स्मृति बनी हुई है
+
ूूूण्जंकइींअण्बवउ
+
एक
+
सूखी नदी के किनारे
+
जल से भरा खाली घड़ा लिए
+
वह स्त्राी
+
घर की ओर लौट रही है।
+
बाजरे की रोटियां
+
बहुत सारे व्यंजनों के बाद
+
मेज के अंतिम भव्य सिरे पर रखी थीं
+
बाजरे की रोटियां
+
मैंने नजरें बचाते बचाते
+
कुछ रोटियां उठायीं
+
एक कुल्हड़ में भरा छाछ का रायता
+
और समारोह से बाहर एक पुलिया पर आ बैठा
+
अब मेरे पास
+
भूख थी
+
और
+
एक दुर्लभ कलेवा
+
मैंने पुलिया पर बैठे बैठे वर वधू को आशीष दिया
+
और उस अंधकार की तरफ बढ़ा
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जहां मेरा घर था।
+
थोड़ी बहुत मृत्यु
+
मृत्यु आयी और कल मेरी कहानी के एक पात्रा को
+
अपने संग ले गयी
+
अक्सर उसके घर के सामने से गुजरते हुए
+
मैं उधर देख लिया करता था
+
अर्से से वह दिखा ही नहीं
+
एक दिन कहा किसी ने कि वह बीमार है गम्भीर रूप से
+
उससे मिलने के लिए थोड़ा बहुत साहस जरूरी था
+
जो मैंने अपने आप में न पाया
+
ूूूण्जंकइींअण्बवउ
+
अंततः एक दिन मैं खामोश बैठा रहा उसके सामने
+
उसके ओठों पर हल्की सी मुस्कुराहट थी या शायद
+
रहा हो कोई दर्द
+
वह बिस्तर पर था और हो चुका था तब्दील एक कंकाल में
+
देर तक वह देता रहा मुझे डाॅक्टरों, हकीमों और वैद्यों का हवाला
+
उसे कोई मलाल न था
+
मैं उसे सुनता ही रहा
+
मुझे याद आये अपनी कहानी के वे प्रसंग
+
जहां वह शिद्दत से मौजूद था
+
उसके दरवाजे के वे पल्ले जिनकी दरारों से
+
दिखायी देती थी बाहर की दुनिया
+
अक्षरों को ढूंढ ढूंढ कर एक भाषा में ढालने का उसका काम
+
गिरफ्त खामोशी की तकलीफदेह थी
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जब मैं उससे बाहर आया
+
मेरा पात्रा धीरे धीरे पास आती शाम को देख रहा था
+
शवयात्रा में जुटे आठ दस लोग
+
तत्परता से उसे फंूक आये
+
मुझे अब लग रहा कि उसके संग
+
मेरा भी कुछ जाता रहा है
+
जैसे थोड़ी बहुत मृत्यु मुझे भी आयी है
+
अब उधर से गुजरता नहीं देखता मैं
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कवेलू वाला छप्पर
+
अब मैं उस कहानी को भी नहीं पढ़ता जहां रहा आया वह
+
अब मैं
+
उसके जिक्र से भी भरसक बचता हूं
+
उसका गुजरना गोया मेरा भी गुजरना है यहां
+

00:28, 10 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

चान्दमारी एक ख़ास जगह होती है
जहाँ खड़े किये गये नकली पुतलों को
गोली मारी जाती है

कोई न कोई होता ही है
निशाने की जद में

इधर कला और संस्कृति और साहित्य के
प्रभुतासम्पन्न केन्द्र विकसित किये जा रहे
चांदमारी के लिए
शिकार की खोज जारी रहती है
ख़ास किस्म का वातावरण
हवा और धूप भी
खास कोण से बहती और उतरती
एक खास किस्म के वैचारिक सद्‍भाव पर दिया जाता बल
प्रकारांतर से एक खास लक्ष्य की ओर रहते अग्रसर

यहाँ जब सम्पन्न होती चांदमारी
गोलियों की आवाज़ें सुनाई नहीं देतीं
निहायत ही ख़ास ढंग से मारा जाता कोई
किसी को आभास तक नहीं होता
और आँखें निकाल ले जाते वे
वे इसे नयी दृष्टि का विकसित होना कहते हैं

वे यकीन नहीं करते
गोली मार देने जैसे तरीकों में
वे भाषा में सेंध लगाते हैं
और निर्वासित करते किसी को
भाषा के जीवंत कालखंड से
इस चांदमारी में
जिस्म पर नहीं आती कोई खरोंच
लेकिन बहुत से विचार हताहत होते हैं

यहाँ से गुज़र कर भी
नयी शक्ल में आ रहे
कुछ विचार।