भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"यौवन का पागलपन / माखनलाल चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
}} | }} | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
+ | {{KKCatGeet}} | ||
<poem> | <poem> | ||
हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया। | हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया। |
17:41, 12 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया।
सपना है, जादू है, छल है ऐसा
पानी पर बनती-मिटती रेखा-सा,
मिट-मिटकर दुनियाँ देखे रोज़ तमाशा।
यह गुदगुदी, यही बीमारी,
मन हुलसावे, छीजे काया।
हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया।
वह आया आँखों में, दिल में, छुपकर,
वह आया सपने में, मन में, उठकर,
वह आया साँसों में से रुक-रुककर।
हो न पुरानी, नई उठे फिर
कैसी कठिन मोहनी माया!
हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया।
रचनाकाल: खण्डवा-१९४०