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"जिस ओर करो संकेत मात्र / शैलेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

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जिस ओर करो संकेत मात्र, उड़ चले विहग मेरे मन का,
 
जिस ओर करो संकेत मात्र, उड़ चले विहग मेरे मन का,
जिस ओर बहाओ तुम स्वामी,बह चले श्रोत इस जीवन का!
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जिस ओर बहाओ तुम स्वामी, बह चले श्रोत इस जीवन का !
  
 
तुम बने शरद के पूर्ण चांद, मैं बनी सिन्धु की लहर चपल,
 
तुम बने शरद के पूर्ण चांद, मैं बनी सिन्धु की लहर चपल,
 
मैं उठी गिरी पद चुम्बन को, आकुल व्याकुल असफल प्रतिपल,
 
मैं उठी गिरी पद चुम्बन को, आकुल व्याकुल असफल प्रतिपल,
जब-जब सोचा भर लूं तुमको अपने प्यासे भुज बन्धन में,
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जब-जब सोचा भर लूँ तुमको अपने प्यासे भुज बन्धन में,
तुम दूर क्रूर तारक बन कर, मुस्काए निज नभ आंगन में,
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तुम दूर क्रूर तारक बन कर, मुस्काए निज नभ आँगन में,
आहें औ' फैली  बाहें  ही  इतिहास  बन गईं जीवन का!
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आहें औ' फैली  बाहें  ही  इतिहास  बन गईं जीवन का !
जिस ओर करो संकेत मात्र!
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जिस ओर करो संकेत मात्र !
  
 
तुम काया, मैं कुरूप छाया, हैं पास-पास पर दूर सदा,
 
तुम काया, मैं कुरूप छाया, हैं पास-पास पर दूर सदा,
 
छाया काया होंगी न एक, है ऎसा कुछ ये भाग्य बदा,
 
छाया काया होंगी न एक, है ऎसा कुछ ये भाग्य बदा,
 
तुम पास बुलाओ दूर करो, तुम दूर करो लो बुला पास,
 
तुम पास बुलाओ दूर करो, तुम दूर करो लो बुला पास,
बस इसी तरह निस्सीम शून्य में डूब रही हैं शेष श्वास,
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बस, इसी तरह निस्सीम शून्य में डूब रही हैं शेष श्वास,
हे अदभुद, समझा दो रहस्य, आकर्षण और विकर्षण का!
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हे अदभुद, समझा दो रहस्य, आकर्षण और विकर्षण का !
जिस ओर करो संकेत मात्र!
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जिस ओर करो संकेत मात्र !
  
 
'''1945 में रचित
 
'''1945 में रचित
 
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13:17, 23 अक्टूबर 2020 के समय का अवतरण

जिस ओर करो संकेत मात्र, उड़ चले विहग मेरे मन का,
जिस ओर बहाओ तुम स्वामी, बह चले श्रोत इस जीवन का !

तुम बने शरद के पूर्ण चांद, मैं बनी सिन्धु की लहर चपल,
मैं उठी गिरी पद चुम्बन को, आकुल व्याकुल असफल प्रतिपल,
जब-जब सोचा भर लूँ तुमको अपने प्यासे भुज बन्धन में,
तुम दूर क्रूर तारक बन कर, मुस्काए निज नभ आँगन में,
आहें औ' फैली बाहें ही इतिहास बन गईं जीवन का !
जिस ओर करो संकेत मात्र !

तुम काया, मैं कुरूप छाया, हैं पास-पास पर दूर सदा,
छाया काया होंगी न एक, है ऎसा कुछ ये भाग्य बदा,
तुम पास बुलाओ दूर करो, तुम दूर करो लो बुला पास,
बस, इसी तरह निस्सीम शून्य में डूब रही हैं शेष श्वास,
हे अदभुद, समझा दो रहस्य, आकर्षण और विकर्षण का !
जिस ओर करो संकेत मात्र !

1945 में रचित