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प्रेम / ओ पवित्र नदी / केशव
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|संग्रह=ओ पवित्र नदी / केशव
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<Poem>
भाषा सुनती नहीं
प्रेम को भी
तर्क के तराजू में
::
तोलती है
हद-से हद
स्मृति के तहखाने
::
खोलती है
प्रेम नहीं है
प्रेम नहीं है
भाषा को
::
आईने की तरह
अपने-अपने अक्सों के लिए
चुनना
या उंगलियों के पोरों से
उमड़ती पुकार
</poem>
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