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"रश्मिरथी / सप्तम सर्ग / भाग 4" के अवतरणों में अंतर

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&#39;&#39;क्या धमकाता है काल ? अरे, आ जा, मुट्ठी में बन्द करूं .<br>
 
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छुट्टी पाऊं, तुझको समाप्त कर दूं, निज को स्वच्छन्द करूं .<br>
 
छुट्टी पाऊं, तुझको समाप्त कर दूं, निज को स्वच्छन्द करूं .<br>
ओ शल्य ! हयों को तेज करो, ले चलो उडाकर शीघ्र वहां ,<br>
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ओ शल्य ! हयों को तेज करो, ले चलो उड़ाकर शीघ्र वहां ,<br>
 
गोविन्द-पार्थ के साथ डटे हों चुनकर सारे वीर जहां .&#39;&#39;<br>
 
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भीषण गर्जन में जहां रोर ताण्डव का डूबा जाता हो .<br>
 
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ले चलो, जहां फट रहा व्योम, मच रहा जहां पर घमासान ,<br>
 
ले चलो, जहां फट रहा व्योम, मच रहा जहां पर घमासान ,<br>
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क्षुधा जागी उसी की हाय, भू को ,<br>
 
क्षुधा जागी उसी की हाय, भू को ,<br>
 
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गयी वह बैठ चक्के को पकड क़र .<br>
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लगाया जोर अश्वों ने न थोडा ,<br>
 
लगाया जोर अश्वों ने न थोडा ,<br>

20:14, 17 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण

दिनमणि पश्चिम की ओर ढले देखते हुए संग्राम घोर ,
गरजा सहसा राधेय, न जाने, किस प्रचण्ड सुख में विभोर .
''सामने प्रकट हो प्रलय ! फाड़ तुझको मैं राह बनाऊंगा ,
जाना है तो तेरे भीतर संहार मचाता जाऊंगा .''

''क्या धमकाता है काल ? अरे, आ जा, मुट्ठी में बन्द करूं .
छुट्टी पाऊं, तुझको समाप्त कर दूं, निज को स्वच्छन्द करूं .
ओ शल्य ! हयों को तेज करो, ले चलो उड़ाकर शीघ्र वहां ,
गोविन्द-पार्थ के साथ डटे हों चुनकर सारे वीर जहां .''

''हो शास्त्रों का झन-झन-निनाद, दन्तावल हों चिंग्घार रहे ,
रण को कराल घोषित करके हों समरशूर हुङकार रहे ,
कटते हों अगणित रुण्ड-मुण्ड, उठता होर आर्त्तनाद क्षण-क्षण ,
झनझना रही हों तलवारें; उडते हों तिग्म विशिख सन-सन .''

''संहार देह धर खड़ा जहां अपनी पैंजनी बजाता हो ,
भीषण गर्जन में जहां रोर ताण्डव का डूबा जाता हो .
ले चलो, जहां फट रहा व्योम, मच रहा जहां पर घमासान ,
साकार ध्वंस के बीच पैठ छोड़ना मुझे है आज प्राण .''

समझ में शल्य की कुछ भी न आया ,
हयों को जोर से उसने भगाया .
निकट भगवान् के रथ आन पहुंचा ,
अगम, अज्ञात का पथ आन पहुंचा ?

अगम की राह, पर, सचमुच, अगम है ,
अनोखा ही नियति का कार्यक्रम है .
न जानें न्याय भी पहचानती है ,
कुटिलता ही कि केवल जानती है ?

रहा दीपित सदा शुभ धर्म जिसका ,
चमकता सूर्य-सा था कर्म जिसका ,
अबाधित दान का आधार था जो ,
धरित्री का अतुल श्रृङगार था जो ,

क्षुधा जागी उसी की हाय, भू को ,
कहें क्या मेदिनी मानव-प्रसू को ?
रुधिर के पङक में रथ को जकड़ क़र ,
गयी वह बैठ चक्के को पकड़ क़र .

लगाया जोर अश्वों ने न थोडा ,
नहीं लेकिन, मही ने चक्र छोडा .
वृथा साधन हुए जब सारथी के ,
कहा लाचार हो उसने रथी से .

''बडी राधेय ! अद्भुत बात है यह .
किसी दु:शक्ति का ही घात है यह .
जरा-सी कीच में स्यन्दन फंसा है ,
मगर, रथ-चक्र कुछ ऐसा धंसा है ;''

''निकाले से निकलता ही नहीं है ,
हमारा जोर चलता ही नहीं है ,
जरा तुम भी इसे झकझोर देखो ,
लगा अपनी भुजा का जोर देखो .''

हँसा राधेय कर कुछ याद मन में ,
कहा, ''हां सत्य ही, सारे भुवन में ,
विलक्षण बात मेरे ही लिए है ,
नियति का घात मेरे ही लिए है .

''मगर, है ठीक, किस्मत ही फंसे जब ,
धरा ही कर्ण का स्यन्दन ग्रसे जब ,
सिवा राधेय के पौरुष प्रबल से ,
निकाले कौन उसको बाहुबल से ?''

उछलकर कर्ण स्यन्दन से उतर कर ,
फंसे रथ-चक्र को भुज-बीच भर कर ,
लगा ऊपर उठाने जोर करके ,
कभी सीधा, कभी झकझोर करके .

मही डोली, सलिल-आगार डोला ,
भुजा के जोर से संसार डोला
न डोला, किन्तु, जो चक्का फंसा था ,
चला वह जा रहा नीचे धंसा था .

विपद में कर्ण को यों ग्रस्त पाकर ,
शरासनहीन, अस्त-व्यस्त पाकर ,
जगा कर पार्थ को भगवान् बोले _
''खडा है देखता क्या मौन, भोले ?''