भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ ८" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मैथिलीशरण गुप्त |संग्रह=पंचवटी / मैथिलीशरण गुप…)
 
छो ("पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ ८" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 36: पंक्ति 36:
 
:कब से चलता है बोलो यह, नूतन शुक-रम्भा-संवाद?"
 
:कब से चलता है बोलो यह, नूतन शुक-रम्भा-संवाद?"
  
 +
बोलीं फिर उस बाला से वे, सुस्मितपूर्वक वैसे ही-
 +
:"अजी, खिन्न तुम न हो, हमारे, ये देवर हैं ऐसे ही।
 +
घर में ब्याही बहू छोड़कर, यहाँ भाग आये हैं ये,
 +
:इस वय में क्या कहूँ, कहाँ का, यह विराग लाये हैं ये!
  
 +
किन्तु तुम्हारी इच्छा है तो, मैं भी उन्हें मनाऊँगी,
 +
:रहो यहाँ तुम अहो! तुम्हारा, वर मैं इन्हें बनाऊँगी।
 +
पर तुम हो ऐश्वर्य्यशालिनी, हम दरिद्र वन-वासी हैं,
 +
:स्वामी-दास स्वयं हैं हम निज, स्वयं स्वामिनी-दासी हैं॥
 +
 +
पर करना होगा न तुम्हें कुछ, सभी काम कर लूँगी मैं,
 +
:परिवेषण तक मृदुल करों से, तुम्हें न करने दूँगी मैं।
 +
हाँ, पालित पशु-पक्षी मेरे, तंग करें यदि तुम्हें कभी,
 +
:उन्हें क्षमा करना होगा तो, कह रखती हूँ इसे अभी!"
 +
 +
रमणी बोली-"रहे तुम्हारा, मेरा रोम रोम सेवी,
 +
:कहीं देवरानी यदि अपनी, मुझे बना लो तुम देवी!"
 +
सीता बोलीं-"वन में तुम-सी, एक बहिन यदि पाऊँगी,
 +
:तो बातें करके ही तुमसे, मैं कृतार्थ हो जाऊँगी॥"
 +
 +
"इस भामा विषयक भाभी को, अविदित भाव नहीं मेरे,"
 +
:लक्ष्मण को सन्तोष यही था, फिर भी थे वे मुँह फेरे।
 +
बोल उठे अब-"इन बातों में, क्या रक्खा है हे भाभी!
 +
:इस विनोद में नहीं दीखती, मुझे मोद की आभा भी।"
 
</poem>
 
</poem>

14:19, 29 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

हँसने लगे कुसुम कानन के, देख चित्र-सा एक महान,
विकच उठीं कलियाँ डालों में, निरख मैथिली की मुस्कान॥
कौन कौन से फूल खिले हैं, उन्हें गिनाने लगा समीर,
एक एक कर गुन गुन करके, जुड़ आई भौंरों की भीर॥

नाटक के इस नये दृश्य के, दर्शक थे द्विज लोग वहाँ,
करते थे शाखासनस्थ वे, समधुप रस का भोग वहाँ।
झट अभिनयारम्भ करने को, कोलाहल भी करते थे,
पंचवटी की रंगभूमि को, प्रिय भावों से भरते थे॥

सीता ने भी उस रमणी को, देखा लक्ष्मण को देखा,
फिर दोनों के बीच खींच दी, एक अपूर्व हास्य-रेखा।
"देवर, तुम कैसे निर्दय हो, घर आये जन का अपमान,
किसके पर-नर तुम, उसके जो, चाहे तुमको प्राण-समान?

याचक को निराश करने में, हो सकती है लाचारी,
किन्तु नहीं आई है आश्रय, लेने को यह सुकुमारी।
देने ही आई है तुमको, निज सर्वस्व बिना संकोच,
देने में कार्पण्य तुम्हें हो, तो लेने में क्या है सोच?"

उनके अरुण चरण-पद्मों में, झुक लक्ष्मण ने किया प्रणाम,
आशीर्वाद दिया सीता ने--"हों सब सफल तुम्हारे काम!"
और कहा--"सब बातें मैंने, सुनी नहीं तुम रखना याद;
कब से चलता है बोलो यह, नूतन शुक-रम्भा-संवाद?"

बोलीं फिर उस बाला से वे, सुस्मितपूर्वक वैसे ही-
"अजी, खिन्न तुम न हो, हमारे, ये देवर हैं ऐसे ही।
घर में ब्याही बहू छोड़कर, यहाँ भाग आये हैं ये,
इस वय में क्या कहूँ, कहाँ का, यह विराग लाये हैं ये!

किन्तु तुम्हारी इच्छा है तो, मैं भी उन्हें मनाऊँगी,
रहो यहाँ तुम अहो! तुम्हारा, वर मैं इन्हें बनाऊँगी।
पर तुम हो ऐश्वर्य्यशालिनी, हम दरिद्र वन-वासी हैं,
स्वामी-दास स्वयं हैं हम निज, स्वयं स्वामिनी-दासी हैं॥

पर करना होगा न तुम्हें कुछ, सभी काम कर लूँगी मैं,
परिवेषण तक मृदुल करों से, तुम्हें न करने दूँगी मैं।
हाँ, पालित पशु-पक्षी मेरे, तंग करें यदि तुम्हें कभी,
उन्हें क्षमा करना होगा तो, कह रखती हूँ इसे अभी!"

रमणी बोली-"रहे तुम्हारा, मेरा रोम रोम सेवी,
कहीं देवरानी यदि अपनी, मुझे बना लो तुम देवी!"
सीता बोलीं-"वन में तुम-सी, एक बहिन यदि पाऊँगी,
तो बातें करके ही तुमसे, मैं कृतार्थ हो जाऊँगी॥"

"इस भामा विषयक भाभी को, अविदित भाव नहीं मेरे,"
लक्ष्मण को सन्तोष यही था, फिर भी थे वे मुँह फेरे।
बोल उठे अब-"इन बातों में, क्या रक्खा है हे भाभी!
इस विनोद में नहीं दीखती, मुझे मोद की आभा भी।"