भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 1" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=अज्ञेय  
 
|रचनाकार=अज्ञेय  
 
}}
 
}}
[[Category:लम्बी कविता]]
+
[[Category:लम्बी रचना]]
 +
{{KKPageNavigation
 +
|आगे=असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 2
 +
|सारणी=असाध्य वीणा / अज्ञेय
 +
}}
 +
[[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]]
 +
<poem>
 +
आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह !
 +
राजा ने आसन दिया। कहा :
 +
"कृतकृत्य हुआ मैं तात ! पधारे आप।
 +
भरोसा है अब मुझ को
 +
साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !" 
  
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]
+
लघु संकेत समझ राजा का
 +
गण दौड़े ! लाये असाध्य वीणा,
 +
साधक के आगे रख उसको, हट गये।
 +
सभा की उत्सुक आँखें
 +
एक बार वीणा को लख, टिक गयीं
 +
प्रियंवद के चेहरे पर। 
  
आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह !<br>
+
"यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रान्तर से
राजा ने आसन दिया। कहा :<br>
+
--घने वनों में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी --
"कृतकृत्य हुआ मैं तात ! पधारे आप।<br>
+
बहुत समय पहले आयी थी।
भरोसा है अब मुझ को<br>
+
पूरा तो इतिहास न जान सके हम :
साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !"<br><br>
+
किन्तु सुना है  
 +
वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस
 +
अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था --
 +
उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,
 +
कंधों पर बादल सोते थे,
 +
उसकी करि-शुंडों सी डालें 
  
लघु संकेत समझ राजा का<br>
+
[[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]] 
गण दौड़े ! लाये असाध्य वीणा,<br>
+
साधक के आगे रख उसको, हट गये।<br>
+
सभा की उत्सुक आँखें<br>
+
एक बार वीणा को लख, टिक गयीं<br>
+
प्रियंवद के चेहरे पर।<br><br>
+
  
"यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रान्तर से<br>
+
हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,
--घने वनों में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी --<br>
+
कोटर में भालू बसते थे,
बहुत समय पहले आयी थी।<br>
+
केहरि उसके वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे।
पूरा तो इतिहास न जान सके हम :<br>
+
और --सुना है-- जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक,
किन्तु सुना है<br>
+
उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।
वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस<br>
+
उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने
अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था --<br>
+
सारा जीवन इसे गढा़ :
उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,<br>
+
हठ-साधना यही थी उस साधक की --  
कंधों पर बादल सोते थे,<br>
+
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।" 
उसकी करि-शुंडों सी डालें<br><br>
+
  
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]<br><br>
+
राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले :  
 +
"मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,
 +
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
 +
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
 +
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।
 +
पर मेरा अब भी है विश्वास
 +
कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
 +
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी।
 +
इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा।
 +
तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे
 +
वज्रकीर्ति की वीणा,
 +
यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :
 +
सब उदग्र, पर्युत्सुक,
 +
जन मात्र प्रतीक्षमाण !" 
  
हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,<br>
+
[[चित्र:Vichitra Veena1.jpg]] 
कोटर में भालू बसते थे,<br>
+
केहरि उसके वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे।<br>
+
और --सुना है-- जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक,<br>
+
उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।<br>
+
उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने<br>
+
सारा जीवन इसे गढा़ :<br>
+
हठ-साधना यही थी उस साधक की --<br>
+
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।"<br><br>
+
  
राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले :<br>
+
केश-कम्बली गुफा-गेह ने खोला कम्बल।
"मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,<br>
+
धरती पर चुपचाप बिछाया।
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,<br>
+
वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर प्राण खींच,  
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।<br>
+
करके प्रणाम,  
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।<br>
+
अस्पर्श छुअन से छुए तार। 
पर मेरा अब भी है विश्वास<br>
+
कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।<br>
+
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी।<br>
+
इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा।<br>
+
तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे<br>
+
वज्रकीर्ति की वीणा,<br>
+
यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :<br>
+
सब उदग्र, पर्युत्सुक,<br>
+
जन मात्र प्रतीक्षमाण !"<br><br>
+
  
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]]<br><br>
+
धीरे बोला : "राजन! पर मैं तो
 +
कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ--
 +
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।
 +
वज्रकीर्ति!
 +
प्राचीन किरीटी-तरु!
 +
अभिमन्त्रित वीणा!
 +
ध्यान-मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।" 
  
केश-कम्बली गुफा-गेह ने खोला कम्बल।<br>
+
चुप हो गया प्रियंवद।
धरती पर चुपचाप बिछाया।<br>
+
सभा भी मौन हो रही। 
वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर प्राण खींच,<br>
+
करके प्रणाम,<br>
+
अस्पर्श छुअन से छुए तार।<br><br>
+
  
धीरे बोला : "राजन! पर मैं तो<br>
+
वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।  
कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ--<br>
+
धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।  
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।<br>
+
सभा चकित थी -- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?  
वज्रकीर्ति!<br>
+
केशकम्बली अथवा होकर पराभूत  
प्राचीन किरीटी-तरु!<br>
+
झुक गया तार पर?  
अभिमन्त्रित वीणा!<br>
+
वीणा सचमुच क्या है असाध्य?  
ध्यान-मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।"<br><br>
+
पर उस स्पन्दित सन्नाटे में  
 
+
मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा--  
चुप हो गया प्रियंवद।<br>
+
नहीं, अपने को शोध रहा था।  
सभा भी मौन हो रही।<br><br>
+
सघन निविड़ में वह अपने को
 
+
वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।<br>
+
धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।<br>
+
सभा चकित थी -- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?<br>
+
केशकम्बली अथवा होकर पराभूत<br>
+
झुक गया तार पर?<br>
+
वीणा सचमुच क्या है असाध्य?<br>
+
पर उस स्पन्दित सन्नाटे में<br>
+
मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा--<br>
+
नहीं, अपने को शोध रहा था।<br>
+
सघन निविड़ में वह अपने को<br><br>
+
  
 
[[असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 2|अगला भाग >>]]
 
[[असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 2|अगला भाग >>]]
 +
</poem>

00:29, 2 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

Vichitra Veena1.jpg

आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह !
राजा ने आसन दिया। कहा :
"कृतकृत्य हुआ मैं तात ! पधारे आप।
भरोसा है अब मुझ को
साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !"

लघु संकेत समझ राजा का
गण दौड़े ! लाये असाध्य वीणा,
साधक के आगे रख उसको, हट गये।
सभा की उत्सुक आँखें
एक बार वीणा को लख, टिक गयीं
प्रियंवद के चेहरे पर।

"यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रान्तर से
--घने वनों में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी --
बहुत समय पहले आयी थी।
पूरा तो इतिहास न जान सके हम :
किन्तु सुना है
वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस
अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था --
उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,
कंधों पर बादल सोते थे,
उसकी करि-शुंडों सी डालें

Vichitra Veena1.jpg

हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,
कोटर में भालू बसते थे,
केहरि उसके वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे।
और --सुना है-- जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक,
उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।
उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने
सारा जीवन इसे गढा़ :
हठ-साधना यही थी उस साधक की --
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।"

राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले :
"मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।
पर मेरा अब भी है विश्वास
कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी।
इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा।
तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे
वज्रकीर्ति की वीणा,
यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :
सब उदग्र, पर्युत्सुक,
जन मात्र प्रतीक्षमाण !"

Vichitra Veena1.jpg

केश-कम्बली गुफा-गेह ने खोला कम्बल।
धरती पर चुपचाप बिछाया।
वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर प्राण खींच,
करके प्रणाम,
अस्पर्श छुअन से छुए तार।

धीरे बोला : "राजन! पर मैं तो
कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ--
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।
वज्रकीर्ति!
प्राचीन किरीटी-तरु!
अभिमन्त्रित वीणा!
ध्यान-मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।"

चुप हो गया प्रियंवद।
सभा भी मौन हो रही।

वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।
धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।
सभा चकित थी -- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?
केशकम्बली अथवा होकर पराभूत
झुक गया तार पर?
वीणा सचमुच क्या है असाध्य?
पर उस स्पन्दित सन्नाटे में
मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा--
नहीं, अपने को शोध रहा था।
सघन निविड़ में वह अपने को

अगला भाग >>