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"याद का इक दिया सा जलता है। / अमित" के अवतरणों में अंतर

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सरनिगूँ<ref>सर झुका हुआ</ref> देख कर तुझे ऐ दोस्त,
 
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मुझको अपना वजूद खलता है।
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मुझको अपना वजूद<ref>अस्तित्त्व</ref> खलता है।
  
 
मौत के मुस्तकिल<ref>सतत</ref> तकाजों में,
 
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नासमझ देख करके खिलता है।
 
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हमनें इस तरह निभाये रिस्ते,
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हमनें इस तरह निभाये रिश्ते,
 
जैसे कपडे़ कोई बदलता है।
 
जैसे कपडे़ कोई बदलता है।
  

22:06, 1 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण

याद का इक दिया सा जलता है।
लौ पकड़ने को दिल मचलता है।

ख़्वाब हो या कि हक़ीक़त दुनियाँ,
दम तो हर हाल में निकलता है।

वक़्त बेपीर है ये मान लिया,
आदमी ही कहाँ पिघलता है।

सरनिगूँ<ref>सर झुका हुआ</ref> देख कर तुझे ऐ दोस्त,
मुझको अपना वजूद<ref>अस्तित्त्व</ref> खलता है।

मौत के मुस्तकिल<ref>सतत</ref> तकाजों में,
एक दिन और यूँ ही टलता है।

अर्श<ref>आकाश</ref> पर शम्स<ref>सूर्य</ref> कमल कीचड़ में,
नासमझ देख करके खिलता है।

हमनें इस तरह निभाये रिश्ते,
जैसे कपडे़ कोई बदलता है।

कारवाँ जाने अब कहाँ पहुँचे,
हर कोई अपनी चाल चलता है।

उनके मतलब का रास्ता अक्सर,
मेरी मजबूरियों से मिलता है।

अपनी जिद छोड़ दूँ ’अमित’ लेकिन,
उनका तेवर कहाँ बदलता है।

शब्दार्थ
<references/>