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"पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ १३" के अवतरणों में अंतर

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कहा राम ने कि "यह सत्य है, सुख-दुख सब है समयाधीन,
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जब तक संकट आप न आवें, तब तक उनसे डर माने,
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देखूँ तो कितने विघ्नों की, वहन-शक्ति रखता हूँ मैं,
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सीता कहने लगीं कि "ठहरो, रहने दो इन बातों को,
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नहीं चाहिए हमें विभव-बल, अब न किसी को डाह रहे,
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:बस, अपनी जीवन-धारा का, यों ही निभृत प्रवाह बहे॥
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हमने छोड़ा नहीं राज्य क्या, छोड़ी नहीं राज्य निधि क्या?
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:सह न सकेगा कहो, हमारी, इतनी सुविधा भी विधि क्या?"
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"विधि की बात बड़ों से पूछो, वे ही उसे मानते हैं,
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:मैं पुरुषार्थ पक्षपाती हूँ; इसको सभी जानते हैं।"
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यह कहकर लक्ष्मण मुसकाये, रामचन्द्र भी मुसकाये,
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:सीता मुसकाईं विनोद के, पुनः प्रमोद भाव छाये।
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"रहो, रहो पुरुषार्थ यही है,-पत्नी तक न साथ लाये;"
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:कहते कहते वैदेही के, नेत्र प्रेम से भर आये॥
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"चलो नदी को घड़े उठा लो, करो और पुरुषार्थ क्षमा,
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:मैं मछलियाँ चुगाने को कुछ, ले चलती हूँ धान, समा।
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घड़े उठाकर खड़े हो गये, तत्क्षण लक्ष्मण गद्गद-से,
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:बोल उठे मानो प्रमत्त हो, राघव महा मोद-मद से-
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"तनिक देर ठहरो मैं देखूँ, तुम देवर-भाभी की ओर,
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:शीतल करूँ हृदय यह अपना, पाकर दुर्लभ हर्ष-हिलोर!"
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यह कहकर प्रभु ने दोनों पर, पुलकित होकर सुध-बुध भूल,
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:उन दोनों के ही पौधों के, बरसाये नव विकसित फूल॥
 
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14:21, 29 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

गूँजा किया देर तक उसका, हाहाकर वहाँ फिर भी,
हुईं उदास विदेहनन्दिनी, आतुर एवं अस्थिर भी।
होने लगी हृदय में उनके, वह आतंकमयी शंका,
मिट्टी में मिल गई अन्त में, जिससे सोने की लंका॥

"हुआ आज अपशकुन सबेरे, कोई संकट पड़े न हा!
कुशल करे कर्त्तार" उन्होंने, लेकर एक उसाँस कहा।
लक्ष्मण ने समझाया उनको-"आर्य्ये, तुम निःशंक रहो,
इस अनुचर के रहते तुमको, किसका डर है, तुम्हीं कहो॥

नहीं विघ्न-बाधाओं को हम, स्वयं बुलाने जाते हैं,
फिर भी यदि वे आ जायें तो, कभी नहीं घबड़ाते हैं।
मेरे मत में तो विपदाएँ, हैं प्राकृतिक परीक्षाएँ,
उनसे वही डरें, कच्ची हों, जिनकी शिक्षा-दीक्षाएँ॥

कहा राम ने कि "यह सत्य है, सुख-दुख सब है समयाधीन,
सुख में कभी न गर्वित होवे, और न दुख में होवे दीन।
जब तक संकट आप न आवें, तब तक उनसे डर माने,
जब वे आजावें तब उनसे, डटकर शूर समर ठाने॥

"यदि संकट ऐसे हों जिनको, तुम्हें बचाकर मैं झेलूँ,
तो मेरी भी यह इच्छा है, एक बार उनसे खेलूँ।
देखूँ तो कितने विघ्नों की, वहन-शक्ति रखता हूँ मैं,
कुछ निश्चय कर सकूँ कि कितनी, सहन शक्ति रखता हूँ मैं॥"

"नहीं जानता मैं, सहने को, अब क्या है अवशेष रहा?
कोई सह न सकेगा, जितना, तुमने मेरे लिए सहा!"
"आर्य्य तुम्हारे इस किंकर को, कठिन नहीं कुछ भी सहना,
असहनशील बना देता है, किन्तु तुम्हारा यह कहना॥"

सीता कहने लगीं कि "ठहरो, रहने दो इन बातों को,
इच्छा तुम न करो सहने की, आप आपदाघातों को।
नहीं चाहिए हमें विभव-बल, अब न किसी को डाह रहे,
बस, अपनी जीवन-धारा का, यों ही निभृत प्रवाह बहे॥

हमने छोड़ा नहीं राज्य क्या, छोड़ी नहीं राज्य निधि क्या?
सह न सकेगा कहो, हमारी, इतनी सुविधा भी विधि क्या?"
"विधि की बात बड़ों से पूछो, वे ही उसे मानते हैं,
मैं पुरुषार्थ पक्षपाती हूँ; इसको सभी जानते हैं।"

यह कहकर लक्ष्मण मुसकाये, रामचन्द्र भी मुसकाये,
सीता मुसकाईं विनोद के, पुनः प्रमोद भाव छाये।
"रहो, रहो पुरुषार्थ यही है,-पत्नी तक न साथ लाये;"
कहते कहते वैदेही के, नेत्र प्रेम से भर आये॥

"चलो नदी को घड़े उठा लो, करो और पुरुषार्थ क्षमा,
मैं मछलियाँ चुगाने को कुछ, ले चलती हूँ धान, समा।
घड़े उठाकर खड़े हो गये, तत्क्षण लक्ष्मण गद्गद-से,
बोल उठे मानो प्रमत्त हो, राघव महा मोद-मद से-

"तनिक देर ठहरो मैं देखूँ, तुम देवर-भाभी की ओर,
शीतल करूँ हृदय यह अपना, पाकर दुर्लभ हर्ष-हिलोर!"
यह कहकर प्रभु ने दोनों पर, पुलकित होकर सुध-बुध भूल,
उन दोनों के ही पौधों के, बरसाये नव विकसित फूल॥