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सौंप रहा था उसी किरीटी-तरु को<br>
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"ओ विशाल तरु!
कौन प्रियंवद है कि दंभ कर<br>
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शत सहस्र पल्लवन-पतझरों ने जिसका नित रूप सँवारा,
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कौन बजावे<br>
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दिन भौंरे कर गये गुंजरित,
यह वीणा जो स्वंय एक जीवन-भर की साधना रही?<br>
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जिसकी जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित,<br>
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नीरव एकालाप प्रियंवद।<br><br>
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"विशाल तरु!<br>
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दीर्घकाय!  
शत सहस्र पल्लवन-पतझरों ने जिसका नित रूप सँवारा,<br>
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ओ पूरे झारखंड के अग्रज,
कितनी बरसातों कितने खद्योतों ने आरती उतारी,<br>
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तात, सखा, गुरु, आश्रय,
दिन भौंरे कर गये गुंजरित,<br>
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त्राता महच्छाय,
रातों में झिल्ली ने<br>
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ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के
अनथक मंगल-गान सुनाये,<br>
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वृन्दगान के मूर्त रूप,  
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मैं तुझे सुनूँ,  
अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीड़ा काकलि<br>
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देखूँ, ध्याऊँ
डाली-डाली को कँपा गयी--<br>
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कहाँ साहस पाऊँ
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छू सकूँ तुझे !
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तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गयी वीणा को 
  
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किस स्पर्धा से
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हाथ करें आघात
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छीनने को तारों से
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स्वंय न जाने कितनों के स्पन्दित प्राण रचे गये। 
  
ओ दीर्घकाय!<br>
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"नहीं, नहीं ! वीणा यह मेरी गोद रही है, रहे,  
ओ पूरे झारखंड के अग्रज,<br>
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किन्तु मैं ही तो  
तात, सखा, गुरु, आश्रय,<br>
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तेरी गोदी बैठा मोद-भरा बालक हूँ,  
त्राता महच्छाय,<br>
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तो तरु-तात ! सँभाल मुझे,  
ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के<br>
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मेरी हर किलक  
वृन्दगान के मूर्त रूप,<br>
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पुलक में डूब जाय :
मैं तुझे सुनूँ,<br>
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देखूँ, ध्याऊँ<br>
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अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक :<br>
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कहाँ साहस पाऊँ<br>
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छू सकूँ तुझे !<br>
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तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गयी वीणा को<br><br>
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किस स्पर्धा से<br>
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हाथ करें आघात<br>
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छीनने को तारों से<br>
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एक चोट में वह संचित संगीत जिसे रचने में<br>
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स्वंय न जाने कितनों के स्पन्दित प्राण रचे गये।<br><br>
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"नहीं, नहीं ! वीणा यह मेरी गोद रही है, रहे,<br>
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किन्तु मैं ही तो<br>
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तेरी गोदी बैठा मोद-भरा बालक हूँ,<br>
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तो तरु-तात ! सँभाल मुझे,<br>
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पुलक में डूब जाय :<br><br>
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21:25, 10 मई 2011 के समय का अवतरण

Vichitra Veena1.jpg

सौंप रहा था उसी किरीटी-तरु को
कौन प्रियंवद है कि दंभ कर
इस अभिमन्त्रित कारुवाद्य के सम्मुख आवे?
कौन बजावे
यह वीणा जो स्वंय एक जीवन-भर की साधना रही?
भूल गया था केश-कम्बली राज-सभा को :

कम्बल पर अभिमन्त्रित एक अकेलेपन में डूब गया था
जिसमें साक्षी के आगे था
जीवित रही किरीटी-तरु
जिसकी जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित,
जिसके कन्धों पर बादल सोते थे
और कान में जिसके हिमगिरी कहते थे अपने रहस्य।
सम्बोधित कर उस तरु को, करता था
नीरव एकालाप प्रियंवद।

"ओ विशाल तरु!
शत सहस्र पल्लवन-पतझरों ने जिसका नित रूप सँवारा,
कितनी बरसातों कितने खद्योतों ने आरती उतारी,
दिन भौंरे कर गये गुंजरित,
रातों में झिल्ली ने
अनथक मंगल-गान सुनाये,
साँझ सवेरे अनगिन
अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीड़ा काकलि
डाली-डाली को कँपा गयी--

Vichitra Veena1.jpg

ओ दीर्घकाय!
ओ पूरे झारखंड के अग्रज,
तात, सखा, गुरु, आश्रय,
त्राता महच्छाय,
ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के
वृन्दगान के मूर्त रूप,
मैं तुझे सुनूँ,
देखूँ, ध्याऊँ
अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक :
कहाँ साहस पाऊँ
छू सकूँ तुझे !
तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गयी वीणा को

किस स्पर्धा से
हाथ करें आघात
छीनने को तारों से
एक चोट में वह संचित संगीत जिसे रचने में
स्वंय न जाने कितनों के स्पन्दित प्राण रचे गये।

"नहीं, नहीं ! वीणा यह मेरी गोद रही है, रहे,
किन्तु मैं ही तो
तेरी गोदी बैठा मोद-भरा बालक हूँ,
तो तरु-तात ! सँभाल मुझे,
मेरी हर किलक
पुलक में डूब जाय :

Vichitra Veena1.jpg

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