(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 5 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | रचनाकार | + | {{KKGlobal}} |
− | + | {{KKRachna | |
− | [[Category: | + | |रचनाकार=अज्ञेय |
+ | }} | ||
+ | [[Category:लम्बी रचना]] | ||
− | + | {{KKPageNavigation | |
+ | |पीछे=असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 3 | ||
+ | |आगे=असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 5 | ||
+ | |सारणी=असाध्य वीणा / अज्ञेय | ||
+ | }} | ||
[[चित्र:Veena_instrument.jpg]] | [[चित्र:Veena_instrument.jpg]] | ||
+ | <poem> | ||
+ | "मुझे स्मरण है | ||
+ | उझक क्षितिज से | ||
+ | किरण भोर की पहली | ||
+ | जब तकती है ओस-बूँद को | ||
+ | उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन। | ||
+ | और दुपहरी में जब | ||
+ | घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं | ||
+ | मौमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुंजार -- | ||
+ | उस लम्बे विलमे क्षण का तन्द्रालस ठहराव। | ||
+ | और साँझ को | ||
+ | जब तारों की तरल कँपकँपी | ||
− | + | स्पर्शहीन झरती है -- | |
− | + | मानो नभ में तरल नयन ठिठकी | |
− | + | नि:संख्य सवत्सा युवती माताओं के आशिर्वाद -- | |
− | + | उस सन्धि-निमिष की पुलकन लीयमान। | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | उस | + | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | "मुझे स्मरण है | |
− | + | और चित्र प्रत्येक | |
− | + | स्तब्ध, विजड़ित करता है मुझको। | |
− | + | सुनता हूँ मैं | |
+ | पर हर स्वर-कम्पन लेता है मुझको मुझसे सोख -- | ||
+ | वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ। ... | ||
+ | मुझे स्मरण है -- | ||
+ | पर मुझको मैं भूल गया हूँ : | ||
+ | सुनता हूँ मैं -- | ||
+ | पर मैं मुझसे परे, शब्द में लीयमान। | ||
− | " | + | "मैं नहीं, नहीं ! मैं कहीं नहीं ! |
− | + | ओ रे तरु ! ओ वन ! | |
− | + | ओ स्वर-सँभार ! | |
− | + | नाद-मय संसृति ! | |
− | + | ओ रस-प्लावन ! | |
− | + | मुझे क्षमा कर -- भूल अकिंचनता को मेरी -- | |
− | मुझे | + | मुझे ओट दे -- ढँक ले -- छा ले -- |
− | + | ओ शरण्य ! | |
− | + | मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले ! | |
− | + | आ, मुझे भला, | |
+ | तू उतर बीन के तारों में | ||
+ | अपने से गा | ||
+ | अपने को गा -- | ||
+ | अपने खग-कुल को मुखरित कर | ||
− | + | [[चित्र:Veena_instrument.jpg]] | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध, | |
+ | अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर | ||
+ | अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त, | ||
+ | अपनी प्रज्ञा को वाणी दे ! | ||
+ | तू गा, तू गा -- | ||
+ | तू सन्निधि पा -- तू खो | ||
+ | तू आ -- तू हो -- तू गा ! तू गा !" | ||
− | + | राजा आगे | |
− | + | समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था -- | |
− | + | काँपी थी उँगलियाँ। | |
− | + | अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा : | |
− | + | किलक उठे थे स्वर-शिशु। | |
− | + | नीरव पद रखता जालिक मायावी | |
− | + | सधे करों से धीरे धीरे धीरे | |
+ | डाल रहा था जाल हेम तारों-का । | ||
− | + | सहसा वीणा झनझना उठी -- | |
− | + | संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गयी -- | |
− | + | रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया । | |
− | + | अवतरित हुआ संगीत | |
− | + | स्वयम्भू | |
− | + | जिसमें सीत है अखंड | |
− | + | ब्रह्मा का मौन | |
− | + | अशेष प्रभामय । | |
− | + | डूब गये सब एक साथ । | |
− | + | सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे । | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | [[चित्र:Veena_instrument.jpg]] | |
− | + | ||
− | [[ | + | [[असाध्य वीणा / अज्ञेय / पृष्ठ 5|अगला भाग >>]] |
+ | </poem> |
00:33, 2 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
"मुझे स्मरण है
उझक क्षितिज से
किरण भोर की पहली
जब तकती है ओस-बूँद को
उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।
और दुपहरी में जब
घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं
मौमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुंजार --
उस लम्बे विलमे क्षण का तन्द्रालस ठहराव।
और साँझ को
जब तारों की तरल कँपकँपी
स्पर्शहीन झरती है --
मानो नभ में तरल नयन ठिठकी
नि:संख्य सवत्सा युवती माताओं के आशिर्वाद --
उस सन्धि-निमिष की पुलकन लीयमान।
"मुझे स्मरण है
और चित्र प्रत्येक
स्तब्ध, विजड़ित करता है मुझको।
सुनता हूँ मैं
पर हर स्वर-कम्पन लेता है मुझको मुझसे सोख --
वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ। ...
मुझे स्मरण है --
पर मुझको मैं भूल गया हूँ :
सुनता हूँ मैं --
पर मैं मुझसे परे, शब्द में लीयमान।
"मैं नहीं, नहीं ! मैं कहीं नहीं !
ओ रे तरु ! ओ वन !
ओ स्वर-सँभार !
नाद-मय संसृति !
ओ रस-प्लावन !
मुझे क्षमा कर -- भूल अकिंचनता को मेरी --
मुझे ओट दे -- ढँक ले -- छा ले --
ओ शरण्य !
मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले !
आ, मुझे भला,
तू उतर बीन के तारों में
अपने से गा
अपने को गा --
अपने खग-कुल को मुखरित कर
चित्र:Veena instrument.jpg
अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध,
अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर
अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त,
अपनी प्रज्ञा को वाणी दे !
तू गा, तू गा --
तू सन्निधि पा -- तू खो
तू आ -- तू हो -- तू गा ! तू गा !"
राजा आगे
समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था --
काँपी थी उँगलियाँ।
अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा :
किलक उठे थे स्वर-शिशु।
नीरव पद रखता जालिक मायावी
सधे करों से धीरे धीरे धीरे
डाल रहा था जाल हेम तारों-का ।
सहसा वीणा झनझना उठी --
संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गयी --
रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया ।
अवतरित हुआ संगीत
स्वयम्भू
जिसमें सीत है अखंड
ब्रह्मा का मौन
अशेष प्रभामय ।
डूब गये सब एक साथ ।
सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे ।
चित्र:Veena instrument.jpg
अगला भाग >>