"बनारस : दो शब्दचित्र / रवीन्द्र प्रभात" के अवतरणों में अंतर
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+ | पिस्ता-बादाम की ठंडई में | ||
भांग के सुंदर संयोग से | भांग के सुंदर संयोग से | ||
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एक घूँट में गटकते हुए | एक घूँट में गटकते हुए | ||
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बनारस | बनारस | ||
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गुम हो जाता सरेशाम | गुम हो जाता सरेशाम | ||
− | + | ’दशाश्वमेध’ की संकरी गलियों में ! | |
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और उस वक़्त | और उस वक़्त | ||
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उसके लिए मायने नही रखती | उसके लिए मायने नही रखती | ||
− | + | 'गोदौलीया' की उद्भ्रान्त भीड़ | |
− | + | शोर-शराबा/ चीख़-पुकार आदि | |
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− | शोर- शराबा/ | + | |
सहजता से | सहजता से | ||
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मुस्कुराती हिंसा को देखकर | मुस्कुराती हिंसा को देखकर | ||
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मुस्कुरा देता वह भी | मुस्कुरा देता वह भी | ||
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कि नहीं होता उसे | कि नहीं होता उसे | ||
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गंगा के मैलेपन का दर्द | गंगा के मैलेपन का दर्द | ||
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और "ज्ञानवापी" के विभेद का एहसास | और "ज्ञानवापी" के विभेद का एहसास | ||
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कभी भी.......! | कभी भी.......! | ||
पसंद करता वह भी | पसंद करता वह भी | ||
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ब्यूरोक्रेट्स की तरह | ब्यूरोक्रेट्स की तरह | ||
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निरंकुशता का पैबंद | निरंकुशता का पैबंद | ||
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व्यवस्थाओं के नाम पर | व्यवस्थाओं के नाम पर | ||
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और मनोरंजन के नाम पर | और मनोरंजन के नाम पर | ||
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भौतिकता का नंगा नृत्य | भौतिकता का नंगा नृत्य | ||
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रात के अंधेरे में ! | रात के अंधेरे में ! | ||
अहले सुबह | अहले सुबह | ||
− | + | घड़ी-घंटों की गूँज | |
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और मंत्रोचारण के बीच | और मंत्रोचारण के बीच | ||
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डुबकी लगाते हुए गंगा में | डुबकी लगाते हुए गंगा में | ||
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देता अपनी प्राचीन संस्कृति की दुहाई | देता अपनी प्राचीन संस्कृति की दुहाई | ||
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अलमस्त सन्यासियों की मानिन्द | अलमस्त सन्यासियों की मानिन्द | ||
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निर्लज्जतापूर्वक ! | निर्लज्जतापूर्वक ! | ||
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आख़री समय तक रखना चाहता वह | आख़री समय तक रखना चाहता वह | ||
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आडंबरों से यु्क्त हँसी | आडंबरों से यु्क्त हँसी | ||
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और सैलानी हवा के झकोरों से | और सैलानी हवा के झकोरों से | ||
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गुदगुदाती ज़िंदगी | गुदगुदाती ज़िंदगी | ||
ताकि वजूद बना रहे | ताकि वजूद बना रहे | ||
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सचमुच- | सचमुच- | ||
बनारस शहर नहीं | बनारस शहर नहीं | ||
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गोया नेता हो गया है | गोया नेता हो गया है | ||
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सत्तापक्ष का.....! ! | सत्तापक्ष का.....! ! | ||
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करतालों की जगह | करतालों की जगह | ||
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बजने लगा है पाखंड | बजने लगा है पाखंड | ||
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अंधविश्वास- | अंधविश्वास- | ||
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रूढ़ियों को कंधे पर लटकाए | रूढ़ियों को कंधे पर लटकाए | ||
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सीढ़ियाँ चढ़ रहा है चट्ट-चट्ट | सीढ़ियाँ चढ़ रहा है चट्ट-चट्ट | ||
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लज्जित हैं सुबह की किरणें | लज्जित हैं सुबह की किरणें | ||
− | + | खंड-खंड तोता रटन्त यजमान लुभाते आख्यान | |
− | खंड- खंड तोता रटन्त यजमान लुभाते आख्यान | + | |
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एक अखंड मु्जरा | एक अखंड मु्जरा | ||
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एक तेलौस मेज़ पर | एक तेलौस मेज़ पर | ||
− | + | तले हुए नाश्ते के समान फैला पाश्चात्य | |
− | तले हुए नाश्ते के समान फैला | + | |
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सुबह-ए-बनारस ! | सुबह-ए-बनारस ! | ||
+ | </poem> |
12:27, 4 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण
1.
पिस्ता-बादाम की ठंडई में
भांग के सुंदर संयोग से
बना-रस
एक घूँट में गटकते हुए
बनारस
गुम हो जाता सरेशाम
’दशाश्वमेध’ की संकरी गलियों में !
और उस वक़्त
उसके लिए मायने नही रखती
'गोदौलीया' की उद्भ्रान्त भीड़
शोर-शराबा/ चीख़-पुकार आदि
सहजता से
मुस्कुराती हिंसा को देखकर
मुस्कुरा देता वह भी
कि नहीं होता उसे
गंगा के मैलेपन का दर्द
और "ज्ञानवापी" के विभेद का एहसास
कभी भी.......!
पसंद करता वह भी
ब्यूरोक्रेट्स की तरह
निरंकुशता का पैबंद
व्यवस्थाओं के नाम पर
और मनोरंजन के नाम पर
भौतिकता का नंगा नृत्य
रात के अंधेरे में !
अहले सुबह
घड़ी-घंटों की गूँज
और मंत्रोचारण के बीच
डुबकी लगाते हुए गंगा में
देता अपनी प्राचीन संस्कृति की दुहाई
अलमस्त सन्यासियों की मानिन्द
निर्लज्जतापूर्वक !
आख़री समय तक रखना चाहता वह
आडंबरों से यु्क्त हँसी
और सैलानी हवा के झकोरों से
गुदगुदाती ज़िंदगी
ताकि वजूद बना रहे
सचमुच-
बनारस शहर नहीं
गोया नेता हो गया है
सत्तापक्ष का.....! !
2
करतालों की जगह
बजने लगा है पाखंड
अंधविश्वास-
रूढ़ियों को कंधे पर लटकाए
सीढ़ियाँ चढ़ रहा है चट्ट-चट्ट
लज्जित हैं सुबह की किरणें
खंड-खंड तोता रटन्त यजमान लुभाते आख्यान
एक अखंड मु्जरा
एक तेलौस मेज़ पर
तले हुए नाश्ते के समान फैला पाश्चात्य
सुबह-ए-बनारस !