"साक़ी से ख़िताब(एक नज़्म) / जिगर मुरादाबादी" के अवतरणों में अंतर
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05:42, 10 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण
कहाँ से बढ़के पहुँचे हैं कहाँ तक इल्म-ओ-फ़न<ref>ज्ञान और कलाएँ</ref> साक़ी
मगर आसूदा<ref>सम्पन्न,संतुष्ट</ref> इन्साँ का न तन साक़ी न मन साक़ी
ये सुनता हूँ कि प्यासी है बहुत ख़ाक-ए-वतन साक़ी
ख़ुदा हाफ़िज़ चला मैं बाँधकर सर से कफ़न साक़ी
सलामत तू, तेरा मयख़ाना, तेरी अंजुमन साक़ी
मुझे करनी है अब कुछ ख़िदमते-दारो-रसन<ref>सूली और बेड़ियों की सेवा</ref> साक़ी
रग-ओ-पै<ref>नस-नस में</ref> में कभी सेहबा<ref>मदिरा</ref> ही सेहबा रक़्स<ref>नृत्य</ref> करती थी
मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मोजज़न<ref>हिलोरें लेती है</ref> साक़ी
न ला बस्वास<ref>संदेह</ref> दिल में जो हैं तेरे देखने वाले
सरे-मक़तल<ref>वध-स्थल</ref> भी देखेंगे चमन-अन्दर-चमन साक़ी
तेरे जोशे रक़ाबत<ref>प्रतिद्वंद्विता के जोश</ref>का तक़ाज़ा कुछ कभी लेकिन
मुझे लाज़िम नहीं है तर्के-मनसब<ref> अपने उच्च पद का त्याग</ref> दफ़अतन<ref>एकाएक,यकायक</ref> साक़ी
अभी नाक़िस<ref>अपूर्ण</ref> है मेयारो-जुनूँ<ref>उन्माद का स्तर</ref> तनज़ीम-ए-मयख़ाना<ref>मधुशाला का प्रबंध</ref>
अभी ना-मो'तबर<ref>विश्वास के अयोग्य</ref> है तेरे मस्तों का चलन साक़ी
वही इन्साँ जिसे सरताजे-मख़लूक़ात<ref>प्राणियों का शिरोमणि</ref> होना था
वही अब सी रहा है अपनी अज़मत<ref>महानता</ref> का कफ़न साक़ी
लिबास-ए-हुर्रियत<ref>राष्ट्रीयता -रूपी लिबास</ref> के उड़ रहे हैं हर तरफ़ पुर्ज़े
लिबास-ए-आदमीयत<ref>मानवीयता रूपी बिछौना</ref> है शिकन अन्दर-शिकन-साक़ी<ref>सलवट-दर-सलवट</ref>
मुझे डर है कि इस नापाकतर<ref>अपवित्रतम</ref> दौर-ए-सियासत<ref>राजनीतिक युग</ref> में
बिगड़ जाए न ख़ुद मेरा मज़ाक़े-शेर-ओ-फ़न<ref>काव्या-कला की अभिरुचि का स्तर</ref> साक़ी