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+ | कबीर का निर्गुन-भजन। | ||
+ | फिर कब छूऊँगा? | ||
+ | अपनी फसलों की जड़ें | ||
+ | उसके तने, हरी-हरी पत्तियाँ | ||
+ | उसकी झुकी हुई बालियाँ। | ||
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+ | अपने घर के पिछवाड़े | ||
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+ | डालियों, पत्तियों में झिलमिलाता हुआ सूरज | ||
+ | बहुत याद आता है। अपने चटक तारों के साथ | ||
+ | रात में जी-भरकर फैला हुआ | ||
+ | मेरे गाँव के बगीचे में | ||
+ | झरते हुए पीले-पीले पत्ते | ||
+ | कब देखूँगा? | ||
+ | उसकी डालियों, शाखाओं पर | ||
+ | आत्मा को तृप्त कर देने वाली | ||
+ | नई-नई कोंपलें कब देखूँगा? | ||
+ | </poem> |
02:04, 18 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण
प्रातः बेला
टटके सूरज को जी भर देखे
कितने दिन बीत गए।
नहीं देख पाया
पेड़ों के पीछे उसे
छिप-छिपकर उगते हुए।
नहीं सुन पाया
भोर आने से पहले
कई चिड़ियों का एक साथ कलरव।
नहीं पी पाया
दुपहरी की बेला
आम के बगीचे में झुर-झुर बहती
शीतल बयार।
उजास होते ही
गेहूँ काटने के लिए
किसानों, औरतों, बच्चों और बेटियों का जत्था
मेरे गाँव से होकर
आज भी जाता होगा।
देर रात तक
आज भी
खलिहान में
पकी हुई फ़सलों का बोझ
खनकता होगा।
हमारे सीवान की गोधूलि बेला
घर लौटते हुए
बछड़ों की हर्ष-ध्वनि से
आज भी गूँजती होगी।
फिर कब देखूँगा?
गनगनाती दुपहरिया में
सघन पत्तियों के बीच छिपा हुआ
चिड़ियों का जोड़ा।
फिर कब सुनूँगा?
कहीं दूर
किसी किसान के मुँह से
रात के सन्नाटे में छिड़ा हुआ
कबीर का निर्गुन-भजन।
फिर कब छूऊँगा?
अपनी फसलों की जड़ें
उसके तने, हरी-हरी पत्तियाँ
उसकी झुकी हुई बालियाँ।
अपने घर के पिछवाड़े
डूबते समय
डालियों, पत्तियों में झिलमिलाता हुआ सूरज
बहुत याद आता है। अपने चटक तारों के साथ
रात में जी-भरकर फैला हुआ
मेरे गाँव के बगीचे में
झरते हुए पीले-पीले पत्ते
कब देखूँगा?
उसकी डालियों, शाखाओं पर
आत्मा को तृप्त कर देने वाली
नई-नई कोंपलें कब देखूँगा?