अनूप.भार्गव (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: == शीर्षक == {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नज़ीर अकबराबादी }} <poem> हां इधर को भी ऐ गु…) |
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पहुंचा है हाथ में उसके बनकर पिचकारी।। | पहुंचा है हाथ में उसके बनकर पिचकारी।। | ||
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18:34, 19 मार्च 2011 के समय का अवतरण
हां इधर को भी ऐ गुंचादहन पिचकारी।
देखें कैसी है तेरी रंगविरंग पिचकारी।।
तेरी पिचकारी की तकदीद में ऐ गुल हर सुबह।
साथ ले निकले हैं सूरज की किरन पिचकारी।।
जिस पे हो रंग फिशां उसको बना देती है।
सर से ले पांव तलक रश्के चमन पिचकारी।।
बात कुछ बस की नहीं वर्ना तेरे हाथों में।
अभी आ बैठें यहीं बनकर हमतंग पिचकारी।।
हो न हो दिल ही किसी आशिके शैदा का नजीर।
पहुंचा है हाथ में उसके बनकर पिचकारी।।