"कविता बनाम दूसरे काम / कुमार सुरेश" के अवतरणों में अंतर
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दद्दा अजीब लगते हैं | दद्दा अजीब लगते हैं | ||
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जो मिले पाठकों या संपादकों से | जो मिले पाठकों या संपादकों से | ||
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बताने लगे, किस पत्रिका में कौन हैं संपादक | बताने लगे, किस पत्रिका में कौन हैं संपादक | ||
किस-किस से उनका परिचय | किस-किस से उनका परिचय | ||
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कौन अच्छा है | कौन अच्छा है | ||
कौन इतना घमंडी | कौन इतना घमंडी | ||
− | + | उनके पत्रों का देता नहीं जवाब | |
सीनियर कवि के नाते देने लगे सलाह | सीनियर कवि के नाते देने लगे सलाह | ||
− | उस पत्रिका को भेजो | + | उस पत्रिका को भेजो वहाँ फलाँ है |
− | + | अलाँ को फ़ोन करो, बात बन जाती है | |
पूरे वार्तालाप में नहीं बताते गुर | पूरे वार्तालाप में नहीं बताते गुर | ||
अच्छी कविता कैसे लिखी जाए | अच्छी कविता कैसे लिखी जाए | ||
कहा मैंने | कहा मैंने | ||
− | + | ज़िंदगी वैसे ही नीचता से लथपथ है | |
न जाने क्या-क्या समझौते और पतन | न जाने क्या-क्या समझौते और पतन | ||
कविता चुनी ही इसलिए है हमने | कविता चुनी ही इसलिए है हमने | ||
− | कि इसमें झलक है स्वतंत्रता | + | कि इसमें झलक है स्वतंत्रता की |
जहाँ समझौता और बंधन नहीं | जहाँ समझौता और बंधन नहीं | ||
कविता कर्म करते समय | कविता कर्म करते समय | ||
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कविता को भी यदि | कविता को भी यदि | ||
− | जुगाड़ और अवसर के | + | जुगाड़ और अवसर के कीचड़ से लपेटना है |
− | तो बिना कविता के ही | + | तो बिना कविता के ही ज़िंदगी ख़ूब नरक है |
− | कुछ | + | कुछ चीज़ें पवित्र हैं जैसे |
हवा में नाचता खिला फूल | हवा में नाचता खिला फूल | ||
छोटे बच्चे की आँखें | छोटे बच्चे की आँखें | ||
− | दोस्तों की | + | दोस्तों की बेतकल्लुफ़ हँसी |
और कविता | और कविता | ||
− | इन | + | इन चीज़ों को सहेजना है ऐसे |
जैसे बच्चे सहेजकर रखते हैं | जैसे बच्चे सहेजकर रखते हैं | ||
विद्या की पत्ती किताब के बीच | विद्या की पत्ती किताब के बीच | ||
− | हम सहेजते हैं | + | हम सहेजते हैं डबडबाई आँख |
रुमाल की कोर के बीच | रुमाल की कोर के बीच | ||
पंक्ति 59: | पंक्ति 64: | ||
मोहल्ला गणेश उत्सव समिति का बन जाना अध्यक्ष | मोहल्ला गणेश उत्सव समिति का बन जाना अध्यक्ष | ||
या फिर आप ही सोचें वह कुछ | या फिर आप ही सोचें वह कुछ | ||
− | कविता को | + | कविता को छोड़कर। |
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22:41, 15 मार्च 2010 के समय का अवतरण
तीसरे और चौथे पहर का संधिकाल
सफ़ारी के नीचे स्लीपर
काँधे पर झोला
दद्दा अजीब लगते हैं
सुपरिचित-नाम कवि !
परिचय होते ही
चट से उतारा झोला
कोई पत्रिका निकाल दिखाने लगे
उनकी कविता छपी है
दूसरी फिर तीसरी पत्रिका निकाली
कुछ पोस्टकार्ड भी
जो मिले पाठकों या संपादकों से
कविता-कर्म की चर्चा का बना उपक्रम
बताने लगे, किस पत्रिका में कौन हैं संपादक
किस-किस से उनका परिचय
कौन जानता उन्हें नाम से
कौन अच्छा है
कौन इतना घमंडी
उनके पत्रों का देता नहीं जवाब
सीनियर कवि के नाते देने लगे सलाह
उस पत्रिका को भेजो वहाँ फलाँ है
अलाँ को फ़ोन करो, बात बन जाती है
पूरे वार्तालाप में नहीं बताते गुर
अच्छी कविता कैसे लिखी जाए
कहा मैंने
ज़िंदगी वैसे ही नीचता से लथपथ है
न जाने क्या-क्या समझौते और पतन
कविता चुनी ही इसलिए है हमने
कि इसमें झलक है स्वतंत्रता की
जहाँ समझौता और बंधन नहीं
कविता कर्म करते समय
स्वतंत्र-चेता मनुष्य होता है कवि
कविता को भी यदि
जुगाड़ और अवसर के कीचड़ से लपेटना है
तो बिना कविता के ही ज़िंदगी ख़ूब नरक है
कुछ चीज़ें पवित्र हैं जैसे
हवा में नाचता खिला फूल
छोटे बच्चे की आँखें
दोस्तों की बेतकल्लुफ़ हँसी
और कविता
इन चीज़ों को सहेजना है ऐसे
जैसे बच्चे सहेजकर रखते हैं
विद्या की पत्ती किताब के बीच
हम सहेजते हैं डबडबाई आँख
रुमाल की कोर के बीच
सारी पशुता के बरक्स
कविता इंसान होने का सुकून है
इसको बेचने से अच्छा है
कुछ और किया जाए
जैसे चुनाव लड़ना या मंदिर कमेटी का चंदा वसूलना
मोहल्ला गणेश उत्सव समिति का बन जाना अध्यक्ष
या फिर आप ही सोचें वह कुछ
कविता को छोड़कर।