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"फिर इस अन्दाज़ से बहार आई / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर

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<poem>फिर इस अंदाज़ से बहार आई  
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फिर इस अंदाज़ से बहार आई  
 
कि हुए मेहरो-मह<ref>चांद-सूरज</ref> तमाशाई  
 
कि हुए मेहरो-मह<ref>चांद-सूरज</ref> तमाशाई  
  
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क्यूँ न दुनिया को हो ख़ुशी "ग़ालिब"  
 
क्यूँ न दुनिया को हो ख़ुशी "ग़ालिब"  
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02:43, 14 मार्च 2010 के समय का अवतरण

फिर इस अंदाज़ से बहार आई
कि हुए मेहरो-मह<ref>चांद-सूरज</ref> तमाशाई

देखो, ऐ साकिनान-ए-ख़ित्त-ए-ख़ाक<ref>धरती के वासियो</ref>
इसको कहते हैं आलम-आराई<ref>दुनिया को सजाना,विश्व-शृँगार
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कि ज़मीं हो गई है सर-ता-सर<ref>एक कोने से दूसरे कोने तक</ref>
रूकशे-सतहे-चर्चे-मीनाई<ref>नीले आसमान जैसी फैली हुई</ref>

सब्ज़ा<ref>हरियाली</ref> को जब कहीं जगह न मिली
बन गया रू-ए-आब<ref>पानी की सतह</ref> पर काई

सब्ज़ा-ओ-गुल<ref>हरियाली और गुलाब</ref> के देखने के लिये
चश्मे-नर्गिस<ref>नरगिस की आँख</ref> को दी है बीनाई<ref>दृष्टि</ref>

है हवा में शराब की तासीर<ref>असर</ref>
बादा-नोशी<ref>शराब पीना</ref> है बाद-पैमाई<ref> हवा खाना</ref>

क्यूँ न दुनिया को हो ख़ुशी "ग़ालिब"
शाह-ए-दींदार<ref>आस्तिक सम्राट
</ref> ने शिफ़ा<ref>रोग से छुटकारा</ref> पाई

शब्दार्थ
<references/>