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"जी ही लेती है/ चंद्र रेखा ढडवाल" के अवतरणों में अंतर

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कभी चमकती
+
सुबह को
अभी-अभी माँजे गए बासन-सी
+
कुछ और सुबह करते
सँवर जाती कभी बिस्तर पर एक भी
+
रात को
सिल्बत बिन बिछी चादर-की-सी
+
कुछ और गहराते
दोपहर की धूप में
+
मर्द जीता है
सूखते कपड़ों सँग सूखती
+
सब कुछ के बीच में से  
अर्गनी पर टँगी धोती सँग झूलती
+
गुज़रते हुए इत्मिनान से
हँसती नन्हें के टूटे दस्तों के बीच में से
+
***
खिलखिलाती चुटकुला कहती गुड़िया की
+
उजाले / अँधेरे से
बरबस रोकी मुस्कानों में
+
लुका-छिपी करती
बतियाती घर के बोलने में
+
सब कुछ को बस
हँसने में हँसती
+
 
रोने में बिसूरती
+
छू कर निकल जाती
सूरज-सी पहुँचती हर कोने अन्तर तक
+
 
होती पर-पल
+
पानी पर बनी लकीरें मिटाती
घर-आँगन की
+
औरत भी
पर अपने होने से
+
जी ही लेती है.
कहीं नहीं होती
+
 
अपने को चीन्हती
+
कहीं नहीं पहुँचती
+
 
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08:07, 17 जुलाई 2010 के समय का अवतरण

सुबह को
कुछ और सुबह करते
रात को
कुछ और गहराते
मर्द जीता है
सब कुछ के बीच में से
गुज़रते हुए इत्मिनान से
 ***
उजाले / अँधेरे से
लुका-छिपी करती
सब कुछ को बस

छू कर निकल जाती

पानी पर बनी लकीरें मिटाती
औरत भी
जी ही लेती है.