भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जी ही लेती है/ चंद्र रेखा ढडवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 16: पंक्ति 16:
 
उजाले / अँधेरे से
 
उजाले / अँधेरे से
 
लुका-छिपी करती
 
लुका-छिपी करती
सब कूच को बस
+
सब कुछ को बस
 +
 
 
छू कर निकल जाती
 
छू कर निकल जाती
  
 
पानी पर बनी लकीरें मिटाती
 
पानी पर बनी लकीरें मिटाती
और भी
+
औरत भी
जी ही लेती है
+
जी ही लेती है.
  
 
</poem>
 
</poem>

08:07, 17 जुलाई 2010 के समय का अवतरण

सुबह को
कुछ और सुबह करते
रात को
कुछ और गहराते
मर्द जीता है
सब कुछ के बीच में से
गुज़रते हुए इत्मिनान से
 ***
उजाले / अँधेरे से
लुका-छिपी करती
सब कुछ को बस

छू कर निकल जाती

पानी पर बनी लकीरें मिटाती
औरत भी
जी ही लेती है.