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"पुल भर मैं / चंद्र रेखा ढडवाल" के अवतरणों में अंतर

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पर रही बस
 
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बिछती जाती हरी दूब ही
 
बिछती जाती हरी दूब ही
नहीं पहुँचती मेरे कन्धों तक
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नहीं पहुँची मेरे कन्धों तक
 
कि सहलाती मुझे
 
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नहीं तनी माथे तक
 
नहीं तनी माथे तक
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जिससे पूर्णतया कटी हुई
 
जिससे पूर्णतया कटी हुई
 
कर्मयोगी कृष्ण की राधा-सी
 
कर्मयोगी कृष्ण की राधा-सी
दो छोरों की खाए पाटते.
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दो छोरों की खाई पाटती
(भारती का बोध महसूसती)
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एक पुल भर मैं.
 
एक पुल भर मैं.
 
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21:02, 16 जुलाई 2010 के समय का अवतरण

मैं मिली
तो भीतर का मरुस्थल
चेहरे पर पसर गया
भीगी ऋतुओं में सराबोर
मैं जिस पर बरसी
निशेष हो जाने तक


उग आई हरियाली
उसके और मेरे इर्द-गिर्द
पर रही बस
बिछती जाती हरी दूब ही
नहीं पहुँची मेरे कन्धों तक
कि सहलाती मुझे
नहीं तनी माथे तक
कि छा लेती मुझे


वर्त्तमान सहेजे रखती तब भी
पकड़ में रखती भविष्य भी
पर बीत कर भी
कब बीतता है बीता हुआ
सामने आ खड़ा हुआ
हरियाई घास को रौंदते
सीधा उसे तकते हुए
थमाते हुए एक सिलसिला
जिससे पूर्णतया कटी हुई
कर्मयोगी कृष्ण की राधा-सी
दो छोरों की खाई पाटती
एक पुल भर मैं.