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01:09, 14 मार्च 2010 के समय का अवतरण
बादल इतने ठोस हों
कि सिर पटकने को जी चाहे
पर्वत कपास की तरह कोमल हों
ताकि उनपर सिर टिका कर सो सकें
झरने आँसुओं की तरह धाराप्रवाह हों
कि उनके माध्यम से रो सकें
धड़कनें इतनी लयबद्ध
कि संगीत उनके पीछे-पीछे दौड़ा चला आए
रास्ते इतने लम्बे कि चलते ही चला जाए
पृथ्वी इतनी छोटी कि गेंद बनाकर खेल सकें
आकाश इतना विस्तीर्ण
कि उड़ते ही चले जाएँ
दुख इतने साहसी हों कि सुख में बदल सकें
सुख इतने पारदर्शी हों
कि दुनिया बदली हुई दिखाई दे
इच्छाएँ मृत्यु के समान
चेहरे हों ध्यानमग्न
बादल इस तरह के परदे हों
कि उनमें हम छुपे भी रहें
और दिखाई भी दें
मेरा हास्य ही मेरा रुदन हो
उनके सपने और उनका व्यंग्य हो
घोरतम तमस के सच में
विजन में जन हों अपनेपन में
सूप में धूप हो
धूप में सब अपरूप हो
बादल इतने डरे हों
कि अपनी छाती पर
मेरा सिर न टिकने दें
झरने इतने धारा प्रवाह न हों
कि मेरे आँसुओं को पिछाड़ सकें।