Last modified on 27 अप्रैल 2010, at 00:22

"सूर्य / एकांत श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

(नया पृष्ठ: उधर जमीन फट रही है और वह उग रहा है चमक रही हैं नदी की ऑंखें हिल रहे …)
 
छो ("सूर्य / एकांत श्रीवास्तव" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
 
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 5 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 +
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=एकांत श्रीवास्तव
 +
|संग्रह=अन्न हैं मेरे शब्द / एकांत श्रीवास्तव
 +
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<Poem>
 
उधर
 
उधर
जमीन फट रही है
+
ज़मीन फट रही है
 
और वह उग रहा है
 
और वह उग रहा है
 
 
चमक रही हैं नदी की ऑंखें
 
चमक रही हैं नदी की ऑंखें
 
हिल रहे हैं पेड़ों के सिर
 
हिल रहे हैं पेड़ों के सिर
पंक्ति 9: पंक्ति 15:
 
आहिस्‍ता-आहिस्‍ता
 
आहिस्‍ता-आहिस्‍ता
 
वह उग रहा है
 
वह उग रहा है
 
 
वह खिलेगा
 
वह खिलेगा
जल भरी ऑंखों के सरोवर में
+
जल भरी आँखों के सरोवर में
 
रोशनी की फूल बनकर
 
रोशनी की फूल बनकर
 
 
वह चमकेगा
 
वह चमकेगा
 
धरती के माथ पर
 
धरती के माथ पर
 
अखण्‍ड सुहाग की
 
अखण्‍ड सुहाग की
 
टिकुली बनकर
 
टिकुली बनकर
 
 
वह  
 
वह  
 
पेड़ और चिडि़यों के दुर्गम अंधेरे में
 
पेड़ और चिडि़यों के दुर्गम अंधेरे में
पंक्ति 25: पंक्ति 28:
 
उग रहा है
 
उग रहा है
 
उधर  
 
उधर  
आहिस्‍ता-आहिस्‍ता.
+
आहिस्‍ता-आहिस्‍ता।
 +
</poem>

00:22, 27 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण

उधर
ज़मीन फट रही है
और वह उग रहा है
चमक रही हैं नदी की ऑंखें
हिल रहे हैं पेड़ों के सिर
और पहाड़ों के
कन्‍धों पर हाथ रखता
आहिस्‍ता-आहिस्‍ता
वह उग रहा है
वह खिलेगा
जल भरी आँखों के सरोवर में
रोशनी की फूल बनकर
वह चमकेगा
धरती के माथ पर
अखण्‍ड सुहाग की
टिकुली बनकर
वह
पेड़ और चिडि़यों के दुर्गम अंधेरे में
सुबह की पहली खुशबू
और हमारे खून की ऊष्‍मा बनकर
उग रहा है
उधर
आहिस्‍ता-आहिस्‍ता।