"माँ / एकांत श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: : एक :<br /> शताब्दियों से<br /> उसके हाथ में सुई और धागा है<br /> और हमारी फटी …) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | : | + | {{KKGlobal}} |
− | शताब्दियों से | + | {{KKRachna |
− | उसके हाथ में सुई और धागा है | + | |रचनाकार=एकांत श्रीवास्तव |
− | और हमारी फटी कमीज | + | |संग्रह=अन्न हैं मेरे शब्द / एकांत श्रीवास्तव |
− | + | }} | |
− | + | {{KKCatKavita}} | |
− | और पैबन्द पर काढ़ती है | + | {{KKAnthologyMaa}} |
− | भविष्य का फूल | + | <Poem> |
− | + | : एक : | |
− | + | शताब्दियों से | |
− | : दो : | + | उसके हाथ में सुई और धागा है |
− | वह रात भर | + | और हमारी फटी कमीज |
− | कंदील की तरह जलती है | + | माँ फटी कमीज पर पैबन्द लगाती है |
− | इसके बाद भोर के | + | और पैबन्द पर काढ़ती है |
− | तारे-सी झिलमिलाती है | + | भविष्य का फूल |
− | + | ||
− | + | : दो : | |
− | जो जीवन के कछारों को | + | वह रात भर |
− | उर्वर बनाती है. | + | कंदील की तरह जलती है |
− | + | इसके बाद भोर के | |
− | + | तारे-सी झिलमिलाती है | |
− | : तीन : | + | माँ एक नदी का नाम है |
− | वह धान की एक बाली है | + | जो जीवन के कछारों को |
− | धूप हवा में पकाती अपने भीतर | + | उर्वर बनाती है. |
− | दूध-सा कच्चा हमारा जीवन | + | |
− | + | : तीन : | |
− | वह जानती है कि हमीं हैं | + | वह धान की एक बाली है |
− | कल खलिहान में | + | धूप हवा में पकाती अपने भीतर |
− | किसान के | + | दूध-सा कच्चा हमारा जीवन |
− | + | ||
− | + | वह जानती है कि हमीं हैं | |
− | : चार : | + | कल खलिहान में |
− | सम्पूर्ण धरती है | + | किसान के सूपे से झरने वाले मोती. |
− | हमारी | + | |
− | + | ||
− | + | : चार : | |
− | वह हमारे माथे पर | + | सम्पूर्ण धरती है माँ |
− | मोर पंख की तरह | + | हमारी साँसों की धुरी पर घूमती |
− | + | जहाँ सबसे पहले फूटे जीवन के अंकुर | |
− | हमारे घावों पर रखती है | + | वह हमारे माथे पर |
− | रूई के फाहों-से बादल | + | मोर पंख की तरह |
− | और हमारे होंठों तक | + | बांधती है वसन्त |
− | अंजुरी में भरकर लाती है समुद्र | + | हमारे घावों पर रखती है |
− | + | रूई के फाहों-से बादल | |
− | आकाश हैं हम | + | और हमारे होंठों तक |
− | उसके दोनों हाथों में उठे. | + | अंजुरी में भरकर लाती है समुद्र |
− | < | + | |
+ | आकाश हैं हम | ||
+ | उसके दोनों हाथों में उठे. | ||
+ | |||
+ | </poem> |
01:41, 20 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
एक :
शताब्दियों से
उसके हाथ में सुई और धागा है
और हमारी फटी कमीज
माँ फटी कमीज पर पैबन्द लगाती है
और पैबन्द पर काढ़ती है
भविष्य का फूल
दो :
वह रात भर
कंदील की तरह जलती है
इसके बाद भोर के
तारे-सी झिलमिलाती है
माँ एक नदी का नाम है
जो जीवन के कछारों को
उर्वर बनाती है.
तीन :
वह धान की एक बाली है
धूप हवा में पकाती अपने भीतर
दूध-सा कच्चा हमारा जीवन
वह जानती है कि हमीं हैं
कल खलिहान में
किसान के सूपे से झरने वाले मोती.
चार :
सम्पूर्ण धरती है माँ
हमारी साँसों की धुरी पर घूमती
जहाँ सबसे पहले फूटे जीवन के अंकुर
वह हमारे माथे पर
मोर पंख की तरह
बांधती है वसन्त
हमारे घावों पर रखती है
रूई के फाहों-से बादल
और हमारे होंठों तक
अंजुरी में भरकर लाती है समुद्र
आकाश हैं हम
उसके दोनों हाथों में उठे.