"आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ ३" के अवतरणों में अंतर
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− | हीरे-सा हृदय हमारा | + | <poem> |
− | कुचला शिरीष कोमल ने | + | हीरे-सा हृदय हमारा |
− | हिमशीतल प्रणय अनल बन | + | कुचला शिरीष कोमल ने |
− | अब लगा विरह से जलने। | + | हिमशीतल प्रणय अनल बन |
− | + | अब लगा विरह से जलने। | |
− | अलियों से आँख बचा कर | + | |
− | जब कुंज संकुचित होते | + | अलियों से आँख बचा कर |
− | धुँधली संध्या प्रत्याशा | + | जब कुंज संकुचित होते |
− | हम एक-एक को रोते। | + | धुँधली संध्या प्रत्याशा |
− | + | हम एक-एक को रोते। | |
− | जल उठा स्नेह, दीपक-सा, | + | |
− | नवनीत हृदय था मेरा | + | जल उठा स्नेह, दीपक-सा, |
− | अब शेष धूमरेखा से | + | नवनीत हृदय था मेरा |
− | चित्रित कर रहा अँधेरा। | + | अब शेष धूमरेखा से |
− | + | चित्रित कर रहा अँधेरा। | |
− | नीरव मुरली, कलरव चुप | + | |
− | अलिकुल थे बन्द नलिन में | + | नीरव मुरली, कलरव चुप |
− | कालिन्दी वही प्रणय की | + | अलिकुल थे बन्द नलिन में |
− | इस तममय हृदय पुलिन में। | + | कालिन्दी वही प्रणय की |
− | + | इस तममय हृदय पुलिन में। | |
− | कुसुमाकर रजनी के जो | + | |
− | पिछले पहरों में खिलता | + | कुसुमाकर रजनी के जो |
− | उस मृदुल शिरीष सुमन-सा | + | पिछले पहरों में खिलता |
− | मैं प्रात धूल में मिलता। | + | उस मृदुल शिरीष सुमन-सा |
− | + | मैं प्रात धूल में मिलता। | |
− | व्याकुल उस मधु सौरभ से | + | |
− | मलयानिल धीरे-धीरे | + | व्याकुल उस मधु सौरभ से |
− | निश्वास छोड़ जाता हैं | + | मलयानिल धीरे-धीरे |
− | अब विरह तरंगिनि तीरे। | + | निश्वास छोड़ जाता हैं |
− | + | अब विरह तरंगिनि तीरे। | |
− | चुम्बन अंकित प्राची का | + | |
− | पीला कपोल दिखलाता | + | चुम्बन अंकित प्राची का |
− | मै कोरी आँख निरखता | + | पीला कपोल दिखलाता |
− | पथ, प्रात समय सो जाता। | + | मै कोरी आँख निरखता |
− | + | पथ, प्रात समय सो जाता। | |
− | श्यामल अंचल धरणी का | + | |
− | भर मुक्ता आँसू कन से | + | श्यामल अंचल धरणी का |
− | छूँछा बादल बन आया | + | भर मुक्ता आँसू कन से |
− | मैं प्रेम प्रभात गगन से। | + | छूँछा बादल बन आया |
− | + | मैं प्रेम प्रभात गगन से। | |
− | विष प्याली जो पी ली थी | + | |
− | वह मदिरा बनी नयन में | + | विष प्याली जो पी ली थी |
− | सौन्दर्य पलक प्याले का | + | वह मदिरा बनी नयन में |
− | अब प्रेम बना जीवन में। | + | सौन्दर्य पलक प्याले का |
− | + | अब प्रेम बना जीवन में। | |
− | कामना सिन्धु लहराता | + | |
− | छवि पूरनिमा थी छाई | + | कामना सिन्धु लहराता |
− | रतनाकर बनी चमकती | + | छवि पूरनिमा थी छाई |
− | मेरे शशि की परछाई। | + | रतनाकर बनी चमकती |
− | + | मेरे शशि की परछाई। | |
− | छायानट छवि-परदे में | + | |
− | सम्मोहन वेणु बजाता | + | छायानट छवि-परदे में |
− | सन्ध्या-कुहुकिनी-अंचल में | + | सम्मोहन वेणु बजाता |
− | कौतुक अपना कर जाता। | + | सन्ध्या-कुहुकिनी-अंचल में |
− | + | कौतुक अपना कर जाता। | |
− | मादकता से आये तुम | + | |
− | संज्ञा से चले गये थे | + | मादकता से आये तुम |
− | हम व्याकुल पड़े बिलखते | + | संज्ञा से चले गये थे |
− | थे, उतरे हुए नशे से। | + | हम व्याकुल पड़े बिलखते |
− | + | थे, उतरे हुए नशे से। | |
− | अम्बर असीम अन्तर में | + | |
− | चंचल चपला से आकर | + | अम्बर असीम अन्तर में |
− | अब इन्द्रधनुष-सी आभा | + | चंचल चपला से आकर |
− | तुम छोड़ गये हो जाकर। | + | अब इन्द्रधनुष-सी आभा |
− | + | तुम छोड़ गये हो जाकर। | |
− | मकरन्द मेघ माला-सी | + | |
− | वह स्मृति मदमाती आती | + | मकरन्द मेघ माला-सी |
− | इस हृदय विपिन की कलिका | + | वह स्मृति मदमाती आती |
− | जिसके रस से मुसक्याती। | + | इस हृदय विपिन की कलिका |
− | + | जिसके रस से मुसक्याती। | |
− | हैं हृदय शिशिरकण पूरित | + | |
− | मधु वर्षा से शशि! तेरी | + | हैं हृदय शिशिरकण पूरित |
− | मन मन्दिर पर बरसाता | + | मधु वर्षा से शशि! तेरी |
− | कोई मुक्ता की ढेरी। | + | मन मन्दिर पर बरसाता |
− | + | कोई मुक्ता की ढेरी। | |
− | शीतल समीर आता हैं | + | |
− | कर पावन परस तुम्हारा | + | शीतल समीर आता हैं |
− | मैं सिहर उठा करता हूँ | + | कर पावन परस तुम्हारा |
− | बरसा कर आँसू धारा | + | मैं सिहर उठा करता हूँ |
− | + | बरसा कर आँसू धारा | |
− | मधु मालतियाँ सोती हैं | + | |
− | कोमल उपधान सहारे | + | मधु मालतियाँ सोती हैं |
− | मैं व्यर्थ प्रतीक्षा लेकर | + | कोमल उपधान सहारे |
− | गिनता अम्बर के तारे। | + | मैं व्यर्थ प्रतीक्षा लेकर |
− | + | गिनता अम्बर के तारे। | |
− | + | ||
− | मेरा भी कोई होगा | + | निष्ठुर! यह क्या छिप जाना? |
− | प्रत्याशा विरह-निशा की | + | मेरा भी कोई होगा |
− | हम होगे औ' दुख होगा। | + | प्रत्याशा विरह-निशा की |
− | + | हम होगे औ' दुख होगा। | |
− | जब शान्त मिलन सन्ध्या को | + | |
− | हम हेम जाल पहनाते | + | जब शान्त मिलन सन्ध्या को |
− | काली चादर के स्तर का | + | हम हेम जाल पहनाते |
− | खुलना न देखने पाते। | + | काली चादर के स्तर का |
− | + | खुलना न देखने पाते। | |
− | अब छुटता नहीं छुड़ाये | + | |
− | + | अब छुटता नहीं छुड़ाये | |
− | आँसू से धुला निखरता | + | रंग गया हृदय हैं ऐसा |
− | यह रंग अनोखा कैसा! | + | आँसू से धुला निखरता |
− | + | यह रंग अनोखा कैसा! | |
− | + | ||
− | कामना कला की विकसी | + | |
− | कमनीय मूर्ति बन तेरी | + | कामना कला की विकसी |
− | खिंचती हैं हृदय पटल पर | + | कमनीय मूर्ति बन तेरी |
− | अभिलाषा बनकर मेरी। | + | खिंचती हैं हृदय पटल पर |
− | + | अभिलाषा बनकर मेरी। | |
− | मणि दीप लिये निज कर में | + | |
− | पथ दिखलाने को आये | + | मणि दीप लिये निज कर में |
− | वह पावक पुंज हुआ अब | + | पथ दिखलाने को आये |
− | किरनों की लट बिखराये। | + | वह पावक पुंज हुआ अब |
− | + | किरनों की लट बिखराये। | |
− | + | ||
− | रूठी करुणा की वीणा | + | बढ़ गयी और भी ऊँठी |
− | दीनता दर्प बन बैठी | + | रूठी करुणा की वीणा |
− | साहस से कहती पीड़ा। | + | दीनता दर्प बन बैठी |
− | + | साहस से कहती पीड़ा। | |
− | यह तीव्र हृदय की मदिरा | + | |
− | जी भर कर-छक कर मेरी | + | यह तीव्र हृदय की मदिरा |
− | अब लाल आँख दिखलाकर | + | जी भर कर-छक कर मेरी |
− | मुझको ही तुमने फेरी। | + | अब लाल आँख दिखलाकर |
− | + | मुझको ही तुमने फेरी। | |
− | नाविक! इस सूने तट पर | + | |
− | किन लहरों में खे लाया | + | नाविक! इस सूने तट पर |
− | इस बीहड़ बेला | + | किन लहरों में खे लाया |
− | अब तक था कोई आया। | + | इस बीहड़ बेला में क्या |
− | + | अब तक था कोई आया। | |
− | उम पार कहाँ फिर आऊँ | + | |
− | तम के मलीन अंचल में | + | उम पार कहाँ फिर आऊँ |
− | जीवन का लोभ नहीं, वह | + | तम के मलीन अंचल में |
− | वेदना छद्ममय छल में। | + | जीवन का लोभ नहीं, वह |
− | + | वेदना छद्ममय छल में। | |
− | प्रत्यावर्तन के पथ में | + | |
− | पद-चिह्न न शेष रहा | + | प्रत्यावर्तन के पथ में |
− | डूबा | + | पद-चिह्न न शेष रहा है। |
− | आँसू नद उमड़ रहा | + | डूबा है हृदय मरूस्थल |
− | + | आँसू नद उमड़ रहा है। | |
− | अवकाश शून्य फैला है | + | |
− | है शक्ति न और सहारा | + | अवकाश शून्य फैला है |
− | अपदार्थ तिरूँगा मैं क्या | + | है शक्ति न और सहारा |
− | हो भी कुछ कूल किनारा। | + | अपदार्थ तिरूँगा मैं क्या |
− | + | हो भी कुछ कूल किनारा। | |
− | तिरती थी तिमिर उदधि में | + | |
− | नाविक! यह मेरी तरणी | + | तिरती थी तिमिर उदधि में |
− | मुखचन्द्र किरण से खिंचकर | + | नाविक! यह मेरी तरणी |
− | आती समीप हो धरणी। | + | मुखचन्द्र किरण से खिंचकर |
− | + | आती समीप हो धरणी। | |
− | सूखे सिकता सागर में | + | |
− | यह नैया मेरे मन की | + | सूखे सिकता सागर में |
− | आँसू का धार बहाकर | + | यह नैया मेरे मन की |
− | खे चला प्रेम बेगुन की। | + | आँसू का धार बहाकर |
− | < | + | खे चला प्रेम बेगुन की। |
+ | </poem> |
10:54, 20 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
हीरे-सा हृदय हमारा
कुचला शिरीष कोमल ने
हिमशीतल प्रणय अनल बन
अब लगा विरह से जलने।
अलियों से आँख बचा कर
जब कुंज संकुचित होते
धुँधली संध्या प्रत्याशा
हम एक-एक को रोते।
जल उठा स्नेह, दीपक-सा,
नवनीत हृदय था मेरा
अब शेष धूमरेखा से
चित्रित कर रहा अँधेरा।
नीरव मुरली, कलरव चुप
अलिकुल थे बन्द नलिन में
कालिन्दी वही प्रणय की
इस तममय हृदय पुलिन में।
कुसुमाकर रजनी के जो
पिछले पहरों में खिलता
उस मृदुल शिरीष सुमन-सा
मैं प्रात धूल में मिलता।
व्याकुल उस मधु सौरभ से
मलयानिल धीरे-धीरे
निश्वास छोड़ जाता हैं
अब विरह तरंगिनि तीरे।
चुम्बन अंकित प्राची का
पीला कपोल दिखलाता
मै कोरी आँख निरखता
पथ, प्रात समय सो जाता।
श्यामल अंचल धरणी का
भर मुक्ता आँसू कन से
छूँछा बादल बन आया
मैं प्रेम प्रभात गगन से।
विष प्याली जो पी ली थी
वह मदिरा बनी नयन में
सौन्दर्य पलक प्याले का
अब प्रेम बना जीवन में।
कामना सिन्धु लहराता
छवि पूरनिमा थी छाई
रतनाकर बनी चमकती
मेरे शशि की परछाई।
छायानट छवि-परदे में
सम्मोहन वेणु बजाता
सन्ध्या-कुहुकिनी-अंचल में
कौतुक अपना कर जाता।
मादकता से आये तुम
संज्ञा से चले गये थे
हम व्याकुल पड़े बिलखते
थे, उतरे हुए नशे से।
अम्बर असीम अन्तर में
चंचल चपला से आकर
अब इन्द्रधनुष-सी आभा
तुम छोड़ गये हो जाकर।
मकरन्द मेघ माला-सी
वह स्मृति मदमाती आती
इस हृदय विपिन की कलिका
जिसके रस से मुसक्याती।
हैं हृदय शिशिरकण पूरित
मधु वर्षा से शशि! तेरी
मन मन्दिर पर बरसाता
कोई मुक्ता की ढेरी।
शीतल समीर आता हैं
कर पावन परस तुम्हारा
मैं सिहर उठा करता हूँ
बरसा कर आँसू धारा
मधु मालतियाँ सोती हैं
कोमल उपधान सहारे
मैं व्यर्थ प्रतीक्षा लेकर
गिनता अम्बर के तारे।
निष्ठुर! यह क्या छिप जाना?
मेरा भी कोई होगा
प्रत्याशा विरह-निशा की
हम होगे औ' दुख होगा।
जब शान्त मिलन सन्ध्या को
हम हेम जाल पहनाते
काली चादर के स्तर का
खुलना न देखने पाते।
अब छुटता नहीं छुड़ाये
रंग गया हृदय हैं ऐसा
आँसू से धुला निखरता
यह रंग अनोखा कैसा!
कामना कला की विकसी
कमनीय मूर्ति बन तेरी
खिंचती हैं हृदय पटल पर
अभिलाषा बनकर मेरी।
मणि दीप लिये निज कर में
पथ दिखलाने को आये
वह पावक पुंज हुआ अब
किरनों की लट बिखराये।
बढ़ गयी और भी ऊँठी
रूठी करुणा की वीणा
दीनता दर्प बन बैठी
साहस से कहती पीड़ा।
यह तीव्र हृदय की मदिरा
जी भर कर-छक कर मेरी
अब लाल आँख दिखलाकर
मुझको ही तुमने फेरी।
नाविक! इस सूने तट पर
किन लहरों में खे लाया
इस बीहड़ बेला में क्या
अब तक था कोई आया।
उम पार कहाँ फिर आऊँ
तम के मलीन अंचल में
जीवन का लोभ नहीं, वह
वेदना छद्ममय छल में।
प्रत्यावर्तन के पथ में
पद-चिह्न न शेष रहा है।
डूबा है हृदय मरूस्थल
आँसू नद उमड़ रहा है।
अवकाश शून्य फैला है
है शक्ति न और सहारा
अपदार्थ तिरूँगा मैं क्या
हो भी कुछ कूल किनारा।
तिरती थी तिमिर उदधि में
नाविक! यह मेरी तरणी
मुखचन्द्र किरण से खिंचकर
आती समीप हो धरणी।
सूखे सिकता सागर में
यह नैया मेरे मन की
आँसू का धार बहाकर
खे चला प्रेम बेगुन की।