"आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ ४" के अवतरणों में अंतर
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− | यह पारावार तरल हो | + | <poem> |
− | फेनिल हो गरल उगलता | + | यह पारावार तरल हो |
− | मथ डाला किस तृष्णा से | + | फेनिल हो गरल उगलता |
− | तल में बड़वानल जलता। | + | मथ डाला किस तृष्णा से |
− | + | तल में बड़वानल जलता। | |
− | निश्वास मलय में मिलकर | + | |
− | छाया पथ छू आयेगा | + | निश्वास मलय में मिलकर |
− | अन्तिम किरणें बिखराकर | + | छाया पथ छू आयेगा |
− | हिमकर भी छिप जायेगा। | + | अन्तिम किरणें बिखराकर |
− | + | हिमकर भी छिप जायेगा। | |
− | चमकूँगा धूल कणों में | + | |
− | सौरभ हो उड़ जाऊँगा | + | चमकूँगा धूल कणों में |
− | पाऊँगा कहीं तुम्हें तो | + | सौरभ हो उड़ जाऊँगा |
− | ग्रहपथ मे टकराऊँगा। | + | पाऊँगा कहीं तुम्हें तो |
− | + | ग्रहपथ मे टकराऊँगा। | |
− | इस यान्त्रिक जीवन में क्या | + | |
− | ऐसी थी कोई क्षमता | + | इस यान्त्रिक जीवन में क्या |
− | जगती थी ज्योति भरी-सी। | + | ऐसी थी कोई क्षमता |
− | तेरी सजीवता ममता। | + | जगती थी ज्योति भरी-सी। |
− | + | तेरी सजीवता ममता। | |
− | हैं चन्द्र हृदय में बैठा | + | |
− | उस शीतल किरण सहारे | + | हैं चन्द्र हृदय में बैठा |
− | सौन्दर्य सुधा बलिहारी | + | उस शीतल किरण सहारे |
− | चुगता चकोर अंगारे। | + | सौन्दर्य सुधा बलिहारी |
− | + | चुगता चकोर अंगारे। | |
− | बलने का सम्बल लेकर | + | |
− | दीपक पतंग से मिलता | + | बलने का सम्बल लेकर |
− | जलने की दीन दशा में | + | दीपक पतंग से मिलता |
− | वह फूल सदृश हो खिलता! | + | जलने की दीन दशा में |
− | + | वह फूल सदृश हो खिलता! | |
− | इस गगन यूथिका वन में | + | |
− | तारे जूही से खिलते | + | इस गगन यूथिका वन में |
− | सित शतदल से शशि तुम क्यों | + | तारे जूही से खिलते |
− | उनमे जाकर हो मिलते? | + | सित शतदल से शशि तुम क्यों |
− | + | उनमे जाकर हो मिलते? | |
− | मत कहो कि यही सफलता | + | |
− | कलियों के लघु जीवन की | + | मत कहो कि यही सफलता |
− | मकरंद भरी खिल जायें | + | कलियों के लघु जीवन की |
− | तोड़ी जाये बेमन की। | + | मकरंद भरी खिल जायें |
− | + | तोड़ी जाये बेमन की। | |
− | यदि दो घड़ियों का जीवन | + | |
− | कोमल वृन्तों में बीते | + | यदि दो घड़ियों का जीवन |
− | कुछ हानि तुम्हारी | + | कोमल वृन्तों में बीते |
− | चुपचाप चू पड़े जीते! | + | कुछ हानि तुम्हारी है क्या |
− | + | चुपचाप चू पड़े जीते! | |
− | सब सुमन मनोरथ अंजलि | + | |
− | बिखरा दी इन चरणों में | + | सब सुमन मनोरथ अंजलि |
− | कुचलो न कीट-सा, इनके | + | बिखरा दी इन चरणों में |
− | कुछ हैं मकरन्द कणों में। | + | कुचलो न कीट-सा, इनके |
− | + | कुछ हैं मकरन्द कणों में। | |
− | निर्मोह काल के काले- | + | |
− | पट पर कुछ अस्फुट रेखा | + | निर्मोह काल के काले- |
− | सब लिखी पड़ी रह जाती | + | पट पर कुछ अस्फुट रेखा |
− | सुख दुख मय जीवन रेखा। | + | सब लिखी पड़ी रह जाती |
− | + | सुख-दुख मय जीवन रेखा। | |
− | दुख सुख में उठता गिरता | + | |
− | संसार तिरोहित होगा | + | दुख-सुख में उठता गिरता |
− | मुड़कर न कभी देखेगा | + | संसार तिरोहित होगा |
− | किसका हित अनहित होगा। | + | मुड़कर न कभी देखेगा |
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− | मानस जीवन वेदी पर | + | |
− | परिणय हो विरह मिलन का | + | मानस जीवन वेदी पर |
− | दुख सुख दोनों नाचेंगे | + | परिणय हो विरह मिलन का |
− | हैं खेल आँख का मन का। | + | दुख-सुख दोनों नाचेंगे |
− | + | हैं खेल आँख का मन का। | |
− | इतना सुख ले पल भर में | + | |
− | जीवन के अन्तस्तल से | + | इतना सुख ले पल भर में |
− | तुम खिसक गये धीरे-से | + | जीवन के अन्तस्तल से |
− | रोते अब प्राण विकल से। | + | तुम खिसक गये धीरे-से |
− | + | रोते अब प्राण विकल से। | |
− | क्यों छलक रहा दुख मेरा | + | |
− | ऊषा की मृदु पलकों में | + | क्यों छलक रहा दुख मेरा |
− | हाँ, उलझ रहा सुख मेरा | + | ऊषा की मृदु पलकों में |
− | सन्ध्या की घन अलकों में। | + | हाँ, उलझ रहा सुख मेरा |
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− | लिपटे सोते थे मन में | + | |
− | सुख दुख दोनों ही ऐसे | + | लिपटे सोते थे मन में |
− | चन्द्रिका अँधेरी मिलती | + | सुख-दुख दोनों ही ऐसे |
− | मालती कुंज में जैसे। | + | चन्द्रिका अँधेरी मिलती |
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− | आकाश तरंग बनाता | + | अवकाश असीम सुखों से |
− | हँसता-सा छायापथ में | + | आकाश तरंग बनाता |
− | नक्षत्र समाज दिखाता। | + | हँसता-सा छायापथ में |
− | + | नक्षत्र समाज दिखाता। | |
− | नीचे विपुला धरणी हैं | + | |
− | दुख भार वहन-सी करती | + | नीचे विपुला धरणी हैं |
− | अपने खारे आँसू से | + | दुख भार वहन-सी करती |
− | करुणा सागर को भरती। | + | अपने खारे आँसू से |
− | + | करुणा सागर को भरती। | |
− | धरणी दुख माँग रही हैं | + | |
− | आकाश छीनता सुख को | + | धरणी दुख माँग रही हैं |
− | अपने को देकर उनको | + | आकाश छीनता सुख को |
− | हूँ देख रहा उस मुख को। | + | अपने को देकर उनको |
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− | इतना सुख जो न समाता | + | |
− | अन्तरिक्ष में, जल थल में | + | इतना सुख जो न समाता |
− | उनकी मुट्ठी में बन्दी | + | अन्तरिक्ष में, जल थल में |
− | था आश्वासन के छल में। | + | उनकी मुट्ठी में बन्दी |
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− | दुख क्या था उनको, मेरा | + | |
− | जो सुख लेकर यों भागे | + | दुख क्या था उनको, मेरा |
− | सोते में चुम्बन लेकर | + | जो सुख लेकर यों भागे |
− | जब रोम तनिक-सा जागे। | + | सोते में चुम्बन लेकर |
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− | सुख मान लिया करता था | + | |
− | जिसका दुख था जीवन में | + | सुख मान लिया करता था |
− | जीवन में मृत्यु बसी हैं | + | जिसका दुख था जीवन में |
− | जैसे बिजली हो घन में। | + | जीवन में मृत्यु बसी हैं |
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− | उनका सुख नाच उठा | + | |
− | यह दुख द्रुम दल हिलने से | + | उनका सुख नाच उठा है |
− | ऋंगार चमकता उनका | + | यह दुख द्रुम दल हिलने से |
− | मेरी करुणा मिलने से। | + | ऋंगार चमकता उनका |
− | + | मेरी करुणा मिलने से। | |
− | हो उदासीन दोनों से | + | |
− | दुख सुख से मेल कराये | + | हो उदासीन दोनों से |
− | ममता की हानि उठाकर | + | दुख-सुख से मेल कराये |
− | दो | + | ममता की हानि उठाकर |
− | + | दो रूठे हुए मनाये। | |
− | चढ़ जाय अनन्त गगन पर | + | |
− | वेदना जलद की माला | + | चढ़ जाय अनन्त गगन पर |
− | रवि तीव्र ताप न जलाये | + | वेदना जलद की माला |
− | हिमकर को हो न उजाला। | + | रवि तीव्र ताप न जलाये |
− | + | हिमकर को हो न उजाला। | |
− | नचती है नियति नटी-सी | + | |
− | कन्दुक-क्रीड़ा-सी करती | + | नचती है नियति नटी-सी |
− | इस व्यथित विश्व आँगन में | + | कन्दुक-क्रीड़ा-सी करती |
− | अपना अतृप्त मन भरती। | + | इस व्यथित विश्व आँगन में |
− | + | अपना अतृप्त मन भरती। | |
− | सन्ध्या की मिलन प्रतीक्षा | + | |
− | कह चलती कुछ मनमानी | + | सन्ध्या की मिलन प्रतीक्षा |
− | ऊषा की रक्त निराशा | + | कह चलती कुछ मनमानी |
− | कर देती अन्त कहानी। | + | ऊषा की रक्त निराशा |
− | + | कर देती अन्त कहानी। | |
− | "विभ्रम मदिरा से उठकर | + | |
− | आओ तम मय अन्तर में | + | "विभ्रम मदिरा से उठकर |
− | पाओगे कुछ न,टटोलो | + | आओ तम मय अन्तर में |
− | अपने बिन सूने घर में। | + | पाओगे कुछ न,टटोलो |
− | + | अपने बिन सूने घर में। | |
− | इस शिथिल आह से खिंचकर | + | |
− | तुम आओगे-आओगे | + | इस शिथिल आह से खिंचकर |
− | इस बढ़ी व्यथा को मेरी | + | तुम आओगे-आओगे |
− | रोओगे अपनाओगे।" | + | इस बढ़ी व्यथा को मेरी |
− | + | रोओगे अपनाओगे।" | |
− | वेदना विकल फिर आई | + | |
− | मेरी चौदहो भुवन में | + | वेदना विकल फिर आई |
− | सुख कहीं न दिया दिखाई | + | मेरी चौदहो भुवन में |
− | विश्राम कहाँ जीवन में! | + | सुख कहीं न दिया दिखाई |
− | + | विश्राम कहाँ जीवन में! | |
− | उच्छ्वास और आँसू में | + | |
− | विश्राम थका सोता | + | उच्छ्वास और आँसू में |
− | रोई आँखों में निद्रा | + | विश्राम थका सोता है |
− | बनकर सपना होता | + | रोई आँखों में निद्रा |
− | + | बनकर सपना होता है। | |
− | निशि, सो जावें जब उर में | + | |
− | ये हृदय व्यथा आभारी | + | निशि, सो जावें जब उर में |
− | उनका उन्माद सुनहला | + | ये हृदय व्यथा आभारी |
− | सहला देना सुखकारी। | + | उनका उन्माद सुनहला |
− | + | सहला देना सुखकारी। | |
− | तुम स्पर्श हीन अनुभव-सी | + | |
− | नन्दन तमाल के तल से | + | तुम स्पर्श हीन अनुभव-सी |
− | जग छा दो श्याम-लता-सी | + | नन्दन तमाल के तल से |
− | तन्द्रा पल्लव विह्वल से। | + | जग छा दो श्याम-लता-सी |
− | < | + | तन्द्रा पल्लव विह्वल से। |
+ | </poem> |
10:55, 20 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
यह पारावार तरल हो
फेनिल हो गरल उगलता
मथ डाला किस तृष्णा से
तल में बड़वानल जलता।
निश्वास मलय में मिलकर
छाया पथ छू आयेगा
अन्तिम किरणें बिखराकर
हिमकर भी छिप जायेगा।
चमकूँगा धूल कणों में
सौरभ हो उड़ जाऊँगा
पाऊँगा कहीं तुम्हें तो
ग्रहपथ मे टकराऊँगा।
इस यान्त्रिक जीवन में क्या
ऐसी थी कोई क्षमता
जगती थी ज्योति भरी-सी।
तेरी सजीवता ममता।
हैं चन्द्र हृदय में बैठा
उस शीतल किरण सहारे
सौन्दर्य सुधा बलिहारी
चुगता चकोर अंगारे।
बलने का सम्बल लेकर
दीपक पतंग से मिलता
जलने की दीन दशा में
वह फूल सदृश हो खिलता!
इस गगन यूथिका वन में
तारे जूही से खिलते
सित शतदल से शशि तुम क्यों
उनमे जाकर हो मिलते?
मत कहो कि यही सफलता
कलियों के लघु जीवन की
मकरंद भरी खिल जायें
तोड़ी जाये बेमन की।
यदि दो घड़ियों का जीवन
कोमल वृन्तों में बीते
कुछ हानि तुम्हारी है क्या
चुपचाप चू पड़े जीते!
सब सुमन मनोरथ अंजलि
बिखरा दी इन चरणों में
कुचलो न कीट-सा, इनके
कुछ हैं मकरन्द कणों में।
निर्मोह काल के काले-
पट पर कुछ अस्फुट रेखा
सब लिखी पड़ी रह जाती
सुख-दुख मय जीवन रेखा।
दुख-सुख में उठता गिरता
संसार तिरोहित होगा
मुड़कर न कभी देखेगा
किसका हित अनहित होगा।
मानस जीवन वेदी पर
परिणय हो विरह मिलन का
दुख-सुख दोनों नाचेंगे
हैं खेल आँख का मन का।
इतना सुख ले पल भर में
जीवन के अन्तस्तल से
तुम खिसक गये धीरे-से
रोते अब प्राण विकल से।
क्यों छलक रहा दुख मेरा
ऊषा की मृदु पलकों में
हाँ, उलझ रहा सुख मेरा
सन्ध्या की घन अलकों में।
लिपटे सोते थे मन में
सुख-दुख दोनों ही ऐसे
चन्द्रिका अँधेरी मिलती
मालती कुंज में जैसे।
अवकाश असीम सुखों से
आकाश तरंग बनाता
हँसता-सा छायापथ में
नक्षत्र समाज दिखाता।
नीचे विपुला धरणी हैं
दुख भार वहन-सी करती
अपने खारे आँसू से
करुणा सागर को भरती।
धरणी दुख माँग रही हैं
आकाश छीनता सुख को
अपने को देकर उनको
हूँ देख रहा उस मुख को।
इतना सुख जो न समाता
अन्तरिक्ष में, जल थल में
उनकी मुट्ठी में बन्दी
था आश्वासन के छल में।
दुख क्या था उनको, मेरा
जो सुख लेकर यों भागे
सोते में चुम्बन लेकर
जब रोम तनिक-सा जागे।
सुख मान लिया करता था
जिसका दुख था जीवन में
जीवन में मृत्यु बसी हैं
जैसे बिजली हो घन में।
उनका सुख नाच उठा है
यह दुख द्रुम दल हिलने से
ऋंगार चमकता उनका
मेरी करुणा मिलने से।
हो उदासीन दोनों से
दुख-सुख से मेल कराये
ममता की हानि उठाकर
दो रूठे हुए मनाये।
चढ़ जाय अनन्त गगन पर
वेदना जलद की माला
रवि तीव्र ताप न जलाये
हिमकर को हो न उजाला।
नचती है नियति नटी-सी
कन्दुक-क्रीड़ा-सी करती
इस व्यथित विश्व आँगन में
अपना अतृप्त मन भरती।
सन्ध्या की मिलन प्रतीक्षा
कह चलती कुछ मनमानी
ऊषा की रक्त निराशा
कर देती अन्त कहानी।
"विभ्रम मदिरा से उठकर
आओ तम मय अन्तर में
पाओगे कुछ न,टटोलो
अपने बिन सूने घर में।
इस शिथिल आह से खिंचकर
तुम आओगे-आओगे
इस बढ़ी व्यथा को मेरी
रोओगे अपनाओगे।"
वेदना विकल फिर आई
मेरी चौदहो भुवन में
सुख कहीं न दिया दिखाई
विश्राम कहाँ जीवन में!
उच्छ्वास और आँसू में
विश्राम थका सोता है
रोई आँखों में निद्रा
बनकर सपना होता है।
निशि, सो जावें जब उर में
ये हृदय व्यथा आभारी
उनका उन्माद सुनहला
सहला देना सुखकारी।
तुम स्पर्श हीन अनुभव-सी
नन्दन तमाल के तल से
जग छा दो श्याम-लता-सी
तन्द्रा पल्लव विह्वल से।