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"हमारा समय / मुकेश मानस" के अवतरणों में अंतर
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11:38, 6 जून 2010 के समय का अवतरण
खिड़कियाँ खटखटाई जा रही हैं
हम नहीं सुनते
दरवाज़े भड़भड़ाए जा रहे हैं
हम नहीं खुलते
लोग हर सिम्त मारे जा रहे हैं
हम नहीं उठते
इंसानियत का बरतन खाली धरा है
मरते हुए जीना
हमारे समय का
सबसे क्रूरतम मुहावरा है
रचनाकाल : 1994