भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"हाइकु / कमलेश भट्ट 'कमल'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 19 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=कमलेश भट्ट 'कमल' | |रचनाकार=कमलेश भट्ट 'कमल' | ||
+ | |संग्रह=हाइकू 2009 / गोपालदास "नीरज" | ||
}} | }} | ||
− | + | [[Category:हाइकु]] | |
+ | [[Category:हाइकु]] | ||
<poem> | <poem> | ||
− | |||
− | |||
− | |||
− | + | कौन मानेगा | |
− | + | सबसे कठिन है | |
− | + | सरल होना। | |
− | + | प्रीति, हाँ प्रीति | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
दुनिया में सुख की | दुनिया में सुख की | ||
− | एक ही | + | एक ही रीति । |
आप से मिले | आप से मिले | ||
तो लगा क्या मिलना | तो लगा क्या मिलना | ||
− | किसी और से | + | किसी और से ! |
− | + | ढूँढ़ता रहा | |
खुद को दिन रात | खुद को दिन रात | ||
− | + | ढूँढ़ न पाया ! | |
पंक्ति 62: | पंक्ति 41: | ||
रिश्तों से ज्यादा | रिश्तों से ज्यादा | ||
तनाव बसते है | तनाव बसते है | ||
− | घरों में अब | + | घरों में अब ! |
− | + | ||
− | युग- | + | युग-युगों से |
सोए पड़े पहाड़ | सोए पड़े पहाड़ | ||
− | जागेंगे कब? | + | जागेंगे कब ? |
− | + | गाँवों से लाता | |
− | + | शुद्ध आक्सीजन भी | |
− | + | वश न चला । | |
− | + | ||
− | बुझते हुए पल भर को सही लड़ी थी लौ भी | + | |
− | मैं नहीं हूँ मैं | + | |
+ | भीड़ तो बढ़ी | ||
+ | विरल हो चले हैं | ||
+ | रिश्ते परंतु । | ||
+ | |||
+ | |||
+ | |||
+ | रात होते ही | ||
+ | गोलबन्द हो गये | ||
+ | चाँद-सितारे । | ||
+ | |||
+ | |||
+ | घिर गया है | ||
+ | विषैली लताओं से | ||
+ | जीवन- वृक्ष । | ||
+ | |||
+ | |||
+ | बुझते हुए | ||
+ | पल भर को सही | ||
+ | लड़ी थी लौ भी । | ||
+ | |||
+ | |||
+ | |||
+ | मैं नहीं हूँ मैं | ||
+ | तुम भी कहाँ तुम | ||
+ | सब मुखौटॆ । | ||
+ | |||
</poem> | </poem> |
10:56, 13 अक्टूबर 2019 के समय का अवतरण
कौन मानेगा
सबसे कठिन है
सरल होना।
प्रीति, हाँ प्रीति
दुनिया में सुख की
एक ही रीति ।
आप से मिले
तो लगा क्या मिलना
किसी और से !
ढूँढ़ता रहा
खुद को दिन रात
ढूँढ़ न पाया !
छोटा कर दे
रातों की लम्बाई भी
गहरी नींद ।
छीन ही लिया
नदी का नदीपन
प्यासे बाँधों ने ।
रिश्तों से ज्यादा
तनाव बसते है
घरों में अब !
युग-युगों से
सोए पड़े पहाड़
जागेंगे कब ?
गाँवों से लाता
शुद्ध आक्सीजन भी
वश न चला ।
भीड़ तो बढ़ी
विरल हो चले हैं
रिश्ते परंतु ।
रात होते ही
गोलबन्द हो गये
चाँद-सितारे ।
घिर गया है
विषैली लताओं से
जीवन- वृक्ष ।
बुझते हुए
पल भर को सही
लड़ी थी लौ भी ।
मैं नहीं हूँ मैं
तुम भी कहाँ तुम
सब मुखौटॆ ।