भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"यही बची है / ओम पुरोहित ‘कागद’" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओम पुरोहित कागद |संग्रह=थिरकती है तृष्णा / ओम पु…) |
छो (यही बची है / ओम पुरोहित कागद का नाम बदलकर यही बची है / ओम पुरोहित ‘कागद’ कर दिया गया है) |
(कोई अंतर नहीं)
|
23:49, 11 जून 2010 के समय का अवतरण
सूख-सूख गए हैं
ताल-तलायी
कुँड-बावड़ी
ढोरों तक को नहीं
गँदला भर पानी ।
रेत के समन्दर में
आँख भर पर ज़िन्दा है भँवरिया ।
यही बची है
जो कभी बरसती है
भीतर के बादलों से
टसकता खारा पानी ।