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"बसंत मनमाना / माखनलाल चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर
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चादर-सी ओढ़ कर ये छायाएँ | चादर-सी ओढ़ कर ये छायाएँ | ||
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तुम कहाँ चले यात्री, पथ तो है बाएँ। | तुम कहाँ चले यात्री, पथ तो है बाएँ। | ||
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धूल पड़ गई है पत्तों पर डालों लटकी किरणें | धूल पड़ गई है पत्तों पर डालों लटकी किरणें | ||
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छोटे-छोटे पौधों को चर रहे बाग में हिरणें, | छोटे-छोटे पौधों को चर रहे बाग में हिरणें, | ||
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दोनों हाथ बुढ़ापे के थर-थर काँपे सब ओर | दोनों हाथ बुढ़ापे के थर-थर काँपे सब ओर | ||
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किन्तु आँसुओं का होता है कितना पागल ज़ोर- | किन्तु आँसुओं का होता है कितना पागल ज़ोर- | ||
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बढ़ आते हैं, चढ़ आते हैं, गड़े हुए हों जैसे | बढ़ आते हैं, चढ़ आते हैं, गड़े हुए हों जैसे | ||
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उनसे बातें कर पाता हूँ कि मैं कुछ जैसे-तैसे। | उनसे बातें कर पाता हूँ कि मैं कुछ जैसे-तैसे। | ||
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पर्वत की घाटी के पीछे लुका-छिपी का खेल | पर्वत की घाटी के पीछे लुका-छिपी का खेल | ||
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खेल रही है वायु शीश पर सारी दनिया झेल। | खेल रही है वायु शीश पर सारी दनिया झेल। | ||
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छोटे-छोटे खरगोशों से उठा-उठा सिर बादल | छोटे-छोटे खरगोशों से उठा-उठा सिर बादल | ||
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किसको पल-पल झांक रहे हैं आसमान के पागल? | किसको पल-पल झांक रहे हैं आसमान के पागल? | ||
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ये कि पवन पर, पवन कि इन पर, फेंक नज़र की डोरी | ये कि पवन पर, पवन कि इन पर, फेंक नज़र की डोरी | ||
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खींच रहे हैं किसका मन ये दोनों चोरी-चोरी? | खींच रहे हैं किसका मन ये दोनों चोरी-चोरी? | ||
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फैल गया है पर्वत-शिखरों तक बसन्त मनमाना, | फैल गया है पर्वत-शिखरों तक बसन्त मनमाना, | ||
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पत्ती, कली, फूल, डालों में दीख रहा मस्ताना। | पत्ती, कली, फूल, डालों में दीख रहा मस्ताना। | ||
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18:40, 28 मार्च 2011 के समय का अवतरण
चादर-सी ओढ़ कर ये छायाएँ
तुम कहाँ चले यात्री, पथ तो है बाएँ।
धूल पड़ गई है पत्तों पर डालों लटकी किरणें
छोटे-छोटे पौधों को चर रहे बाग में हिरणें,
दोनों हाथ बुढ़ापे के थर-थर काँपे सब ओर
किन्तु आँसुओं का होता है कितना पागल ज़ोर-
बढ़ आते हैं, चढ़ आते हैं, गड़े हुए हों जैसे
उनसे बातें कर पाता हूँ कि मैं कुछ जैसे-तैसे।
पर्वत की घाटी के पीछे लुका-छिपी का खेल
खेल रही है वायु शीश पर सारी दनिया झेल।
छोटे-छोटे खरगोशों से उठा-उठा सिर बादल
किसको पल-पल झांक रहे हैं आसमान के पागल?
ये कि पवन पर, पवन कि इन पर, फेंक नज़र की डोरी
खींच रहे हैं किसका मन ये दोनों चोरी-चोरी?
फैल गया है पर्वत-शिखरों तक बसन्त मनमाना,
पत्ती, कली, फूल, डालों में दीख रहा मस्ताना।