भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दिन पके हुए / नारायणलाल परमार" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नारायणलाल परमार }} {{KKCatNavgeet}} <poem> पपीते की तरह हैं दिन…)
 
 
पंक्ति 14: पंक्ति 14:
  
 
अंबिया ने शुरू किया  
 
अंबिया ने शुरू किया  
अभि झाँकना,
+
अभी झाँकना,
 
पत्तों को है पसन्द
 
पत्तों को है पसन्द
 
गप्प हाँकना,
 
गप्प हाँकना,

08:54, 29 जून 2010 के समय का अवतरण

पपीते की तरह हैं दिन पके हुए ।

पहले की तरह नहीं
धूप नाचती,
मैले कपड़े-लत्ते
हवा काँचती,
नज़र नहीं आते भौंरे थके हुए ।

अंबिया ने शुरू किया
अभी झाँकना,
पत्तों को है पसन्द
गप्प हाँकना,
ताल-तलैया पुरइन से ढँके हुए ।

आँखों में अभी कहाँ
चढ़ी खुमारी,
मेड़ों पे यात्राएँ
फिर भी जारी,
अधरों पर गीत, गंध में छके हुए ।