"कलम की दादागिरी / अलका सर्वत मिश्रा" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna}} रचनाकार=अलका सर्वत मिश्रा संग्रह= }} …) |
|||
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{KKGlobal}} | {{KKGlobal}} | ||
− | + | {{KKRachna | |
− | + | |रचनाकार=अलका सर्वत मिश्रा | |
− | + | |संग्रह= | |
− | + | }} | |
− | + | {{KKCatKavita}} | |
− | + | <poem> | |
बहुत दिनों के बाद | बहुत दिनों के बाद | ||
अब उठने लगी है कलम | अब उठने लगी है कलम | ||
पंक्ति 57: | पंक्ति 57: | ||
कि- | कि- | ||
कुदरत उसी की सुरक्षा करती है | कुदरत उसी की सुरक्षा करती है | ||
− | जो कुदरत की रक्षा करता | + | जो कुदरत की रक्षा करता है। |
+ | </poem> |
16:27, 15 अगस्त 2010 के समय का अवतरण
बहुत दिनों के बाद
अब उठने लगी है कलम
देखिए क्या गुल खिलाती है ?
इसके मन में क्या है
अब ये क्या लिखने वाली है,
एक क्षण पहले तक भी
नहीं बताती है !
यह नए शब्द गढ़ती है
नए अर्थ ले आती है
मुश्किलों के वक्त मुझे
विदुर नीति समझाती है.
कहती है -
कण-कण में चेतना है
'जड़' केवल तेरी बुद्धि है
जो नहीं समझती है
प्रकृति का इशारा,
हवा-पानी-मिट्टी की,
कीमत नहीं जानती है
बेहद शक्तिशाली हैं ये
हारेंगे नहीं तेरे किसी आविष्कार से,
एक ही क्षण लगेगा
उस आविष्कार को मिट्टी होते.
कहती है-
सदियों से लिखती आई हूँ
शिलापट मैं
लाखों करोड़ों इबारतें
सब कुछ ख़त्म होते गये
सिर्फ ये लेख ही बचे हैं.
जाने कितने जीव-जंतु
जाने कैसे- कैसे पेड़-पौधे
किले, इमारतें, महल
सब कुछ मिल जाता है
इसी प्रकृति में
सबसे शक्तिशाली है ये
तुम इसकी रक्षा करो
ये तुम्हें संरक्षित करेगी
पहले भी लिख चुकी हूँ मैं
धर्मो रक्षति रक्षतः
क्यों नहीं आता समझ में, तुम्हें
पढ़ डाली अलमारी भर-भर किताबें
अनगिनत रिसाले
पर तेरी जड़ बुद्धि में
नहीं घुसा अभी तक
कि-
कुदरत उसी की सुरक्षा करती है
जो कुदरत की रक्षा करता है।