भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दिन-रात बसर करते हैं--गज़ल / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
 
'''दिन-रात बसर करते हैं--गज़ल'''
 
'''दिन-रात बसर करते हैं--गज़ल'''
  
जो मेरे साथ दिन-रात बसर करते हैं
+
जो मेरे साथ  
 +
दिन-रात बसर करते हैं
 
लोग उन्हें मेहमान कहते हैं  
 
लोग उन्हें मेहमान कहते हैं  
  
जिनके लफ्ज़ों से मेरी रूह के कतरे बिखरे
+
जिनके लफ्ज़ों से  
 +
मेरी रूह के कतरे बिखरे
 
लोग उन्हें बेज़ुबान कहते हैं  
 
लोग उन्हें बेज़ुबान कहते हैं  
  
जिनकी सरशोरियाँ मैने पचाई थक-छक कर  
+
जिनकी सरशोरियाँ  
 +
मैने पचाई थक-छक कर  
 
वो मुझे पीकदान कहते हैं  
 
वो मुझे पीकदान कहते हैं  
  
जिनकी राहों से कांटे बटोरे चुन-चुन कर
+
जिनकी राहों से  
 +
कांटे बटोरे चुन-चुन कर
 
वो मुझे कूड़ादान कहते हैं
 
वो मुझे कूड़ादान कहते हैं
  
जिनके अस्मत को सींचा खुद लाहु के चश्मों से  
+
जिनके अस्मत को  
 +
सींचा खुद लहू के चश्मों से  
 
वो इसे रक्त-दान कहते हैं
 
वो इसे रक्त-दान कहते हैं

14:36, 13 जुलाई 2010 के समय का अवतरण

दिन-रात बसर करते हैं--गज़ल

जो मेरे साथ
दिन-रात बसर करते हैं
लोग उन्हें मेहमान कहते हैं

जिनके लफ्ज़ों से
मेरी रूह के कतरे बिखरे
लोग उन्हें बेज़ुबान कहते हैं

जिनकी सरशोरियाँ
मैने पचाई थक-छक कर
वो मुझे पीकदान कहते हैं

जिनकी राहों से
कांटे बटोरे चुन-चुन कर
वो मुझे कूड़ादान कहते हैं

जिनके अस्मत को
सींचा खुद लहू के चश्मों से
वो इसे रक्त-दान कहते हैं