भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जुलूस का जलसा / त्रिलोचन" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोचन |संग्रह=अरघान / त्रिलोचन }} {{KKCatKavita}} <poem> ना…) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) छो ("जुलूस का जलसा / त्रिलोचन" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite))) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 20: | पंक्ति 20: | ||
लानत है, लानत, विराग को राग सुहाए, | लानत है, लानत, विराग को राग सुहाए, | ||
− | साधू हो कर मांस मनुज का | + | साधू हो कर मांस मनुज का भरमुँह खाए । |
</poem> | </poem> |
19:31, 20 जुलाई 2010 के समय का अवतरण
नागों का वह नंगा नाच और वह चिमटा
भाँजते हुए जाना, फिर तान कर डराना
जनसाधारण को, समूह जिन का था सिमटा
आसपास कौतूहल से, भयभीत कराना
और भगाना, प्रेतरूप से उन्हें छराना,
हौदा कसे हुए हाथी, सजे हुए घोड़े,
ऊँट, वेश रचना, पैंतरे, नवीन तराना,
वह विरागियों के जुलूस का जलसा, थोड़े
में इंद्र का अखाड़ा, कोई पी कर छोड़े
जिसे नहीं वह मद पल पल में छलक रहा था,
लोग भभर कर भागे, कितनों ने दम तोड़े
वेश बनाए निशाचरी छल ललक रहा था ।
लानत है, लानत, विराग को राग सुहाए,
साधू हो कर मांस मनुज का भरमुँह खाए ।