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"मेरी मौत के बाद / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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मेरी मौत के बाद
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वही सब रहेगा आबाद
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यानी, जम्हूरियाई बाजार में
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हुकूमत की मुनाफेदार दुकान
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बेचती रहेगी
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मुर्गियाँ हलाल,
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होती रहेंगी
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सफेदपोशों की जेबें गरम,
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इलेक्त्रानिक डिब्बे
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उनकी हरामखोरी के
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प्रशस्तिगान आलाप-आलाप
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करते रहेंगे भेदों को आह्लादित
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चन्द सड़कों, गाली, चौबारों
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कस्बों, नगरों, शहरों
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के नाम बदलाकर
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महापरिवर्तन की वाहवाही लूटी जाएगी
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और भोपाल, लातूर, ओडीसा, भुज में
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चढ़े दान-दक्षिणाओं से
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चन्द घर तब्दील होते रहेंगे
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महालों, प्रासादों, शाही हरमों में
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पतझड़ में
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जमीन पर वैसे ही
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अनाथ-अपाहिज पत्ते
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खिसक-खिसक बजते रहते रहेंगे,
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बरसात का गिरगिट
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बूंदों की टांगों से
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सर्र सर्र रेंगता फिरेगा,
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बूढ़ी बाँझिन को अप्रत्याशित
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माँ बनने के सुख की भाँति
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बसंत सालों-साल
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उसके गिने-गिनाए दांतों की सुराखों से
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फिस्स फिस्स मुस्कराता जाएगा,
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ठण्ड की बर्फीली कटार के
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अनवरत प्रहार से
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यमदूत को विहंस-विहंस
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अंगूठा दिखाते
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बेहया लावारिस बच्चे
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प्लेटफार्मों पर स्वच्छंद लोटने
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नालियों की शीतल बांह में
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मीठी-मीठी नींद सोने
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और सिर्फ
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एक अदद
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भूख की मार बरदाश्त करने
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जैसा अपार सुख बटोरते ही रहेंगे
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अपने चहेते ग्रीष्म से,
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जो गली-कूचों
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घरों-घाटों तक
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अल्हड़ फिरता फिरेगा
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फुसफुसाता, खिलखिलाता हुआ,
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अर्थात छैल-छबीला मौसम
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कभी क्लीन शेव में
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कालेजगामी छोरियां छेड़ता फिरेगा
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या, कभी हरी-पीली पगड़ी पहन
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दाढ़ी-मूंछ बढ़ाए
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खंडहरों में
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बैसाखियों सहारे
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भटकता रहेगा
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और क्रिकेट खेलते बच्चों को
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भूत-भय से सिहराता-सहमाता रहेगा
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अथवा, सठियाए विधुर की तरह
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खुद को
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बासी-खट्टी जम्हाईयों में
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व्यस्त रखकर
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अपने सुखद दाम्पत्य की यादें
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अपने संतोष के खाते में
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आवर्ती जमा कर
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सूद-दर-सूद
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साल-दर-साल
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बढ़ाता फिरेगा
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मेरी मौत के बाद
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नहीं थमेगी
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उदारीकरण की बरसात,
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वह ढहा देगी बाकी अधटंगा
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सामाजिक समास,
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घुस जाएगी यथासंभव कहीं भी
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और बेटियां ही होंगी
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सस्ता-सुलभ स्रोत
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यौन-सुख की,
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नारीत्त्व का फड़फड़ाता पंछी
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नारी गात-गेह से रिहा हो
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जा-उड़ छिपेगा
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दन्त्य कथाओं के अरण्य में,
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वाहियात बुढ़ापा
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फ़िल्म और  टी०वी० का
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सबसे हंसोड़ कामेडी होगा
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और रावणीय अट्टहास करता बचपन
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अपने खून से लथपथ बघनखों से
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अखबारों की सुर्खियाँ लिखते-लिखते
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हादसों का महाकाव्य रचेगा
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मेरी मौत के बाद
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होगा सिर्फ एक अवसाद
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कि मेरे अन्दर का
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खूबसूरत पिटारा स्मृतियों का
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ध्वस्त हो जाएगा
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और स्वर्गस्थ माँ बिलख उठेगी--
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'अब किस स्मृतिलोक में
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अदेह विचरूंगी  मैं?'
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भले ही स्वर्ग की सुनहरी मुंडेरों से
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उचक-उचक
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झाँक-झाँक
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मूसलाधार ममता बरसाने
 +
चूमने, पुचकारने, दुलराने
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लाडले की बाट जोहती माँ
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अपनी पुत्रात्मा को
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किसी दिन
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समेट लेगी
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अपने आँचल में;
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पर, उसे तो ग्लानि ही होगी
 +
कि मेरी मौत के बाद
 +
आइन्दा इस धरती पर
 +
वह शायद ही होगी आबाद.

02:06, 6 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण


मेरी मौत के बाद

मेरी मौत के बाद
वही सब रहेगा आबाद
यानी, जम्हूरियाई बाजार में
हुकूमत की मुनाफेदार दुकान
बेचती रहेगी
मुर्गियाँ हलाल,
होती रहेंगी
सफेदपोशों की जेबें गरम,
इलेक्त्रानिक डिब्बे
उनकी हरामखोरी के
प्रशस्तिगान आलाप-आलाप
करते रहेंगे भेदों को आह्लादित
चन्द सड़कों, गाली, चौबारों
कस्बों, नगरों, शहरों
के नाम बदलाकर
महापरिवर्तन की वाहवाही लूटी जाएगी
और भोपाल, लातूर, ओडीसा, भुज में
चढ़े दान-दक्षिणाओं से
चन्द घर तब्दील होते रहेंगे
महालों, प्रासादों, शाही हरमों में

पतझड़ में
जमीन पर वैसे ही
अनाथ-अपाहिज पत्ते
खिसक-खिसक बजते रहते रहेंगे,
बरसात का गिरगिट
बूंदों की टांगों से
सर्र सर्र रेंगता फिरेगा,
बूढ़ी बाँझिन को अप्रत्याशित
माँ बनने के सुख की भाँति
बसंत सालों-साल
उसके गिने-गिनाए दांतों की सुराखों से
फिस्स फिस्स मुस्कराता जाएगा,
ठण्ड की बर्फीली कटार के
अनवरत प्रहार से
यमदूत को विहंस-विहंस
अंगूठा दिखाते
बेहया लावारिस बच्चे
प्लेटफार्मों पर स्वच्छंद लोटने
नालियों की शीतल बांह में
मीठी-मीठी नींद सोने
और सिर्फ
एक अदद
भूख की मार बरदाश्त करने
जैसा अपार सुख बटोरते ही रहेंगे
अपने चहेते ग्रीष्म से,
जो गली-कूचों
घरों-घाटों तक
अल्हड़ फिरता फिरेगा
फुसफुसाता, खिलखिलाता हुआ,
अर्थात छैल-छबीला मौसम
कभी क्लीन शेव में
कालेजगामी छोरियां छेड़ता फिरेगा
या, कभी हरी-पीली पगड़ी पहन
दाढ़ी-मूंछ बढ़ाए
खंडहरों में
बैसाखियों सहारे
भटकता रहेगा
और क्रिकेट खेलते बच्चों को
भूत-भय से सिहराता-सहमाता रहेगा
अथवा, सठियाए विधुर की तरह
खुद को
बासी-खट्टी जम्हाईयों में
व्यस्त रखकर
अपने सुखद दाम्पत्य की यादें
अपने संतोष के खाते में
आवर्ती जमा कर
सूद-दर-सूद
साल-दर-साल
बढ़ाता फिरेगा
 
मेरी मौत के बाद
नहीं थमेगी
उदारीकरण की बरसात,
वह ढहा देगी बाकी अधटंगा
सामाजिक समास,
घुस जाएगी यथासंभव कहीं भी
और बेटियां ही होंगी
सस्ता-सुलभ स्रोत
यौन-सुख की,
नारीत्त्व का फड़फड़ाता पंछी
नारी गात-गेह से रिहा हो
जा-उड़ छिपेगा
दन्त्य कथाओं के अरण्य में,
वाहियात बुढ़ापा
फ़िल्म और टी०वी० का
सबसे हंसोड़ कामेडी होगा
और रावणीय अट्टहास करता बचपन
अपने खून से लथपथ बघनखों से
अखबारों की सुर्खियाँ लिखते-लिखते
हादसों का महाकाव्य रचेगा
 
मेरी मौत के बाद
होगा सिर्फ एक अवसाद
कि मेरे अन्दर का
खूबसूरत पिटारा स्मृतियों का
ध्वस्त हो जाएगा
और स्वर्गस्थ माँ बिलख उठेगी--
'अब किस स्मृतिलोक में
अदेह विचरूंगी मैं?'
भले ही स्वर्ग की सुनहरी मुंडेरों से
उचक-उचक
झाँक-झाँक
मूसलाधार ममता बरसाने
चूमने, पुचकारने, दुलराने
लाडले की बाट जोहती माँ
अपनी पुत्रात्मा को
किसी दिन
समेट लेगी
अपने आँचल में;
पर, उसे तो ग्लानि ही होगी
कि मेरी मौत के बाद
आइन्दा इस धरती पर
वह शायद ही होगी आबाद.