"डाईन / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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+ | जो गधारूढ़ है, | ||
+ | वह सौ फीसदी | ||
+ | ज़िंदकी पर लानत है | ||
+ | यानी एक तमाशाई औरत है | ||
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+ | गू-मूत लेपित उसके बदन | ||
+ | से जुडी उसकी जुम्बिशी गरदन | ||
+ | से लटकता उसका वाक् यंत्र | ||
+ | चिघ्घाड़ रहा है-- | ||
+ | अनाप-शनाप शब्द | ||
+ | जो बाजों की हुड़दंग | ||
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+ | ग्रामीण संस्कृति-कोश के | ||
+ | शर्मशार शब्द का | ||
+ | भावप्रवण अर्थ | ||
+ | बनती जा रही है वह, | ||
+ | जिसे सुन, बच्चे समझते जा रहे हैं | ||
+ | अवतरित जीव दूसरे लोक के, | ||
+ | जिसे पढ़, अखबारों में | ||
+ | कौतुहल की असंख्य सूइयां | ||
+ | कोंचती रही हैं हमें, | ||
+ | जिसे अफवाहों में पाकर | ||
+ | हम डूबते रहे हैं गाढ़े धुओं में | ||
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+ | वह आज सामने खड़ी है | ||
+ | तमाशा दिखाने का जुर्म काट रही है | ||
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+ | अभी-अभी बच्चे | ||
+ | प्राकृतिक-राजनीतिक कुचक्रों के | ||
+ | डसने से मरकर | ||
+ | कुछ अफवाह इजाद कर गए थे | ||
+ | कि किसी विदेशी बीमारी ने | ||
+ | सारे गाँव को लाइलाज बना दिया है, | ||
+ | उसके बाद से | ||
+ | वह बेकार विधवा | ||
+ | अपना मनहूस चेहरा लिए | ||
+ | जब-जब बाहर आई | ||
+ | गाँव ने देखा पहले उसे | ||
+ | फिर, किसी पड़ोसी को | ||
+ | अपने बच्चे की लाश ले जाते हुए, | ||
+ | ऐसे कई दृष्टान्तों के आवर्तन से | ||
+ | वह शक के घेरे में आई | ||
+ | और सारा गाँव उबल उठा, | ||
+ | पंचायत का भी माथा ठनका | ||
+ | कि किया है उस बज्जात ने | ||
+ | टोना-टोटका, | ||
+ | तब, पंचायत ने अपना सर्वसम्मत फैसला ठोंका-- | ||
+ | ''करा दो, इस अधमा को | ||
+ | आमरण गधे की सवारी..." | ||
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+ | उसके मृत्योपरांत | ||
+ | सनातनियों ने | ||
+ | कराई मुनादी गाँव-भर में-- | ||
+ | "आइन्दा इस डाईन को | ||
+ | शुमार किया जाए | ||
+ | राक्षस सम्प्रदाय में..." | ||
+ | |||
+ | आज भी रहस्यमय मौतों की बाढ़ | ||
+ | सालों-साल आती है | ||
+ | और एक जीवित डाईन उसमें | ||
+ | बड़े ताम-झाम से बहा दी जाती है. |
11:55, 2 अगस्त 2010 के समय का अवतरण
डाईन
आचार-संहिता से बहिष्कृत
तमाशबीन बाजों से आवृत
और हू-ब-हू इंसान जैसी आकृति
जो गधारूढ़ है,
वह सौ फीसदी
ज़िंदकी पर लानत है
यानी एक तमाशाई औरत है
गू-मूत लेपित उसके बदन
से जुडी उसकी जुम्बिशी गरदन
से लटकता उसका वाक् यंत्र
चिघ्घाड़ रहा है--
अनाप-शनाप शब्द
जो बाजों की हुड़दंग
में ज़ब्त होता जा रहा है
ग्रामीण संस्कृति-कोश के
शर्मशार शब्द का
भावप्रवण अर्थ
बनती जा रही है वह,
जिसे सुन, बच्चे समझते जा रहे हैं
अवतरित जीव दूसरे लोक के,
जिसे पढ़, अखबारों में
कौतुहल की असंख्य सूइयां
कोंचती रही हैं हमें,
जिसे अफवाहों में पाकर
हम डूबते रहे हैं गाढ़े धुओं में
वह आज सामने खड़ी है
तमाशा दिखाने का जुर्म काट रही है
अभी-अभी बच्चे
प्राकृतिक-राजनीतिक कुचक्रों के
डसने से मरकर
कुछ अफवाह इजाद कर गए थे
कि किसी विदेशी बीमारी ने
सारे गाँव को लाइलाज बना दिया है,
उसके बाद से
वह बेकार विधवा
अपना मनहूस चेहरा लिए
जब-जब बाहर आई
गाँव ने देखा पहले उसे
फिर, किसी पड़ोसी को
अपने बच्चे की लाश ले जाते हुए,
ऐसे कई दृष्टान्तों के आवर्तन से
वह शक के घेरे में आई
और सारा गाँव उबल उठा,
पंचायत का भी माथा ठनका
कि किया है उस बज्जात ने
टोना-टोटका,
तब, पंचायत ने अपना सर्वसम्मत फैसला ठोंका--
करा दो, इस अधमा को
आमरण गधे की सवारी..."
उसके मृत्योपरांत
सनातनियों ने
कराई मुनादी गाँव-भर में--
"आइन्दा इस डाईन को
शुमार किया जाए
राक्षस सम्प्रदाय में..."
आज भी रहस्यमय मौतों की बाढ़
सालों-साल आती है
और एक जीवित डाईन उसमें
बड़े ताम-झाम से बहा दी जाती है.