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"भूलने का रिवाज़ / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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काल की तेज रफ्तार को
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पछाड़कर बहुत आगे निकल गया है
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फैक्ट्रियों के बलगम
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कोठियों की खखार
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आफिसों की मूत
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और चिमनियों के मल
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से बने भृगु के नीचे दब-पिचकर
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सोंधी मिट्टी और चितकबरे पत्थर
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गायब हो चुके हैं
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हमारे सहज एहसासों से
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पुरातात्त्विक स्मृतिशालाओं तक में
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खलिहानों से आने वाली
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गंवार हवाएं,
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और पनघटों से उठने वाली
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पनिहारिनों की किलकाहट
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लुप्तप्राय हो चुकी है
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भूलने की ज़द्दोज़हद में
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कौमार्य देहाती आब्सेशन बन चुका है,
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मर्दानी हेयर स्टाइल वाली लड़कियां
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जूड़ों और चोटियों को
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मोहनजोदड़ो की औरतों तक ही
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सीमित रखना चाहती हैं,
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सेक्स को नितम्बस्थ न मानकर
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होठों पर अवस्थित रखती हैं.

17:02, 15 जुलाई 2010 के समय का अवतरण

भूलने का रिवाज़

भूलने का रिवाज़
काल की तेज रफ्तार को
पछाड़कर बहुत आगे निकल गया है

फैक्ट्रियों के बलगम
कोठियों की खखार
आफिसों की मूत
और चिमनियों के मल
से बने भृगु के नीचे दब-पिचकर
सोंधी मिट्टी और चितकबरे पत्थर
गायब हो चुके हैं
हमारे सहज एहसासों से

पुरातात्त्विक स्मृतिशालाओं तक में
खलिहानों से आने वाली
गंवार हवाएं,
और पनघटों से उठने वाली
पनिहारिनों की किलकाहट
लुप्तप्राय हो चुकी है

भूलने की ज़द्दोज़हद में
कौमार्य देहाती आब्सेशन बन चुका है,
मर्दानी हेयर स्टाइल वाली लड़कियां
जूड़ों और चोटियों को
मोहनजोदड़ो की औरतों तक ही
सीमित रखना चाहती हैं,
सेक्स को नितम्बस्थ न मानकर
होठों पर अवस्थित रखती हैं.