भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कभी कभी / साहिर लुधियानवी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो
 
(5 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 5 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
रचनाकार: [[साहिर लुधियानवी]]
+
{{KKGlobal}}
[[Category:कविताएँ]]
+
{{KKRachna
[[Category:नज़्म]]
+
|रचनाकार=साहिर लुधियानवी
[[Category:साहिर लुधियानवी]]
+
}}
 +
{{KKCatNazm}}
 +
{{KKVID|v=K5qpLfwEM9c}}
 +
<poem>
 +
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
  
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में 
 +
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी 
 +
ये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है 
 +
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी 
  
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है<br><br>
+
अजब न था के मैं बेगाना-ए-अलम रह कर 
 +
तेरे जमाल की रानाईयों में खो रहता 
 +
तेरा गुदाज़ बदन तेरी नीमबाज़ आँखें 
 +
इन्हीं हसीन फ़सानों में महव हो रहता 
  
के ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में <br>
+
पुकारतीं मुझे जब तल्ख़ियाँ ज़माने की
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी <br>
+
तेरे लबों से हलावट के घूँट पी लेता 
ये तीर्गी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है <br>
+
हयात चीखती फिरती बरहना-सर, और मैं 
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी <br><br>
+
घनेरी ज़ुल्फ़ों के साये में छुप के जी लेता 
  
अजब था के मैं बेगाना-ए-अलम रह कर <br>
+
मगर ये हो सका और अब ये आलम है 
तेरे जमाल की रानाईयों में खो रहता <br>
+
के तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहीं 
तेरा गुदाज़ बदन तेरी नीमबाज़ आँखें <br>
+
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िन्दगी जैसे 
इन्हीं हसीन फ़सानों में महब हो रहता <br><br>
+
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं 
  
पुकारतीं मुझे जब तल्ख़ियाँ ज़माने की <br>
+
ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले 
तेरे लबों से हलावत के घूँट पी लेता <br>
+
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रह्गुज़ारों से  
हयात चीखती फिरती बरहना-सर, और मैं <br>
+
महीब साये मेरी सम्त बढ़ते आते हैं 
घनेरी ज़ुल्फ़ों के साये में छुप के जी लेता <br><br>
+
हयात-ओ-मौत के पुरहौल ख़ारज़ारों से 
  
मगर ये हो सका और अब ये आलम है <br>
+
कोई जादह-ए-मंज़िल न रौशनी का सुराग़ 
के तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहीं <br>
+
भटक रही है ख़लाओं में ज़िन्दगी मेरी 
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िन्दगी जैसे <br>
+
इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊँगा कभी खोकर 
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं <br><br>
+
मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स मगर फिर भी  
  
ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले <br>
+
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है 
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी गुज़रगाहों से <br>
+
...................................................................
मुहीब साये मेरी सिम्त बढ़ते आते हैं <br>
+
हयात-ओ-मौत के पुरहौल ख़ारज़ारों से <br><br>
+
  
न कोई जादा न मंज़िल न रोशनी का सुराग़ <br>
+
'''[[कहिले काहीँ / साहिर लुधियानवी / सुमन पोखरेल|यस कविताको नेपाली अनुवाद पढ्नलाई यहाँ क्लिक गर्नुहोस्]]'''
भटक रही है ख़लाओं में ज़िन्दगी मेरी <br>
+
इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊँगा कभी खोकर <br>
+
मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स मगर यूँ ही <br><br>
+
  
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है <br><br>
+
</poem>

14:51, 27 नवम्बर 2020 के समय का अवतरण

यदि इस वीडियो के साथ कोई समस्या है तो
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है

कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी

अजब न था के मैं बेगाना-ए-अलम रह कर
तेरे जमाल की रानाईयों में खो रहता
तेरा गुदाज़ बदन तेरी नीमबाज़ आँखें
इन्हीं हसीन फ़सानों में महव हो रहता

पुकारतीं मुझे जब तल्ख़ियाँ ज़माने की
तेरे लबों से हलावट के घूँट पी लेता
हयात चीखती फिरती बरहना-सर, और मैं
घनेरी ज़ुल्फ़ों के साये में छुप के जी लेता

मगर ये हो न सका और अब ये आलम है
के तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िन्दगी जैसे
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं

ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रह्गुज़ारों से
महीब साये मेरी सम्त बढ़ते आते हैं
हयात-ओ-मौत के पुरहौल ख़ारज़ारों से

न कोई जादह-ए-मंज़िल न रौशनी का सुराग़
भटक रही है ख़लाओं में ज़िन्दगी मेरी
इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊँगा कभी खोकर
मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स मगर फिर भी

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
...................................................................

यस कविताको नेपाली अनुवाद पढ्नलाई यहाँ क्लिक गर्नुहोस्