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"अभिशप्त हूँ / रमेश कौशिक" के अवतरणों में अंतर

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<poem>
 
आश्वासनों की देहरी पर
 
कुचली जाती रही
 
पूरी एक पीढ़ी
 
और उनमें सभी
 
एक-दूसरे के लिए
 
अफ़सोस करते रहे
 
किंतु किसी ने अपना फन
 
नहीं उठाया|
 
  
चाहते तो उठा सकते थे
 
एक साथ
 
हजारों को डस सकते थे
 
लेकिन
 
अफ़सोस के सिवा
 
किसी ने कुछ नहीं किया|
 
 
और ऐसे ही
 
बुझ गया
 
बिना रीढ़ की पीढ़ी का
 
          दीया | 
 
</poem>
 

19:24, 19 जुलाई 2010 के समय का अवतरण