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"काले बादल / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

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सुमित्रानंदन पंत।
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मुख्‍य रचनाऍं: वीणा, पल्‍लव, गुंजन, ग्रम्‍या, युगांत, युगवाणी, कला और बूढ़ा चॉंदएचिदंबरा, लोकायतन, आदि।
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|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
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                                काले बादल।
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सुनता हूँ, मैंने भी देखा,
 
सुनता हूँ, मैंने भी देखा,
काले बादल में रहती चॉंदी की रेखा!
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काले बादल में रहती चाँदी की रेखा!
 
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काले बादल जाति द्वेष के,
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काले बादल विश्‍व क्‍लेश के,
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काले बादल उठते पथ पर
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नव स्‍वतंत्रता के प्रवेश के!
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:काले बादल जाति द्वेष के,
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:काले बादल विश्‍व क्‍लेश के,
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:काले बादल उठते पथ पर
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:नव स्‍वतंत्रता के प्रवेश के!
 
सुनता आया हूँ, है देखा,
 
सुनता आया हूँ, है देखा,
काले बादल में हँसती चॉंदी की रेखा!
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काले बादल में हँसती चाँदी की रेखा!
 
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आज दिशा है घोर अँधेरी
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नभ में गरज रही रण भेरी,
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चमक रही चपला क्षण-क्षण पर
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झनक रही झिल्‍ली झन-झन कर;
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नाच-नाच ऑंगन में गाते केकी-केका
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काले बादल में लहरी चॉंदी की रेखा।
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काले बादल, काले बादल,
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:आज दिशा हैं घोर अँधेरी
मन भय से हो उठता चंचल!
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:नभ में गरज रही रण भेरी,
कौन हृदय में कहता पल पल
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:चमक रही चपला क्षण-क्षण पर
मृत्‍यु आ रही साजे दलबल!
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:झनक रही झिल्‍ली झन-झन कर!
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नाच-नाच आँगन में गाते केकी-केका
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काले बादल में लहरी चाँदी की रेखा।
  
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:काले बादल, काले बादल,
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:मन भय से हो उठता चंचल!
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:मृत्‍यु आ रही साजे दलबल!
 
आग लग रही, घात चल रहे, विधि का लेखा!
 
आग लग रही, घात चल रहे, विधि का लेखा!
काले बादल में छिपती चॉंदी की रेखा!
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काले बादल में छिपती चाँदी की रेखा!
  
मुझे मृत्‍यु की भीति नहीं है,
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:मुझे मृत्‍यु की भीति नहीं है,
पर अनीति से प्रीति नहीं है,
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:पर अनीति से प्रीति नहीं है,
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:यह मनुजोचित रीति नहीं है,
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:जन में प्रीति प्रतीति नहीं है!
  
देश जातियों का कब होगा,
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:देश जातियों का कब होगा,
नव मानवता में रे एका,
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:नव मानवता में रे एका,
काले बादल में कल की,  
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:काले बादल में कल की,  
सोने की रेखा!
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::सोने की रेखा!
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12:38, 1 जून 2010 के समय का अवतरण

सुनता हूँ, मैंने भी देखा,
काले बादल में रहती चाँदी की रेखा!

काले बादल जाति द्वेष के,
काले बादल विश्‍व क्‍लेश के,
काले बादल उठते पथ पर
नव स्‍वतंत्रता के प्रवेश के!
सुनता आया हूँ, है देखा,
काले बादल में हँसती चाँदी की रेखा!

आज दिशा हैं घोर अँधेरी
नभ में गरज रही रण भेरी,
चमक रही चपला क्षण-क्षण पर
झनक रही झिल्‍ली झन-झन कर!
नाच-नाच आँगन में गाते केकी-केका
काले बादल में लहरी चाँदी की रेखा।

काले बादल, काले बादल,
मन भय से हो उठता चंचल!
कौन हृदय में कहता पलपल
मृत्‍यु आ रही साजे दलबल!
आग लग रही, घात चल रहे, विधि का लेखा!
काले बादल में छिपती चाँदी की रेखा!

मुझे मृत्‍यु की भीति नहीं है,
पर अनीति से प्रीति नहीं है,
यह मनुजोचित रीति नहीं है,
जन में प्रीति प्रतीति नहीं है!

देश जातियों का कब होगा,
नव मानवता में रे एका,
काले बादल में कल की,
सोने की रेखा!