"दशरथ विलाप / भारतेंदु हरिश्चंद्र" के अवतरणों में अंतर
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+ | बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था। | ||
+ | इसी के देखने को मैं बचा था ।। | ||
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+ | छिपाई है कहाँ सुन्दर वो मूरत । | ||
+ | दिखा दो साँवली-सी मुझको सूरत ।। | ||
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+ | छिपे हो कौन-से परदे में बेटा । | ||
+ | निकल आवो कि अब मरता हु बुड्ढा ।। | ||
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+ | बुढ़ापे पर दया जो मेरे करते । | ||
+ | तो बन की ओर क्यों तुम पर धरते ।। | ||
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+ | किधर वह बन है जिसमें राम प्यारा । | ||
+ | अजुध्या छोड़कर सूना सिधारा ।। | ||
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+ | गई संग में जनक की जो लली है | ||
+ | इसी में मुझको और बेकली है ।। | ||
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+ | कहेंगे क्या जनक यह हाल सुनकर । | ||
+ | कहाँ सीता कहाँ वह बन भयंकर ।। | ||
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+ | गया लछमन भी उसके साथ-ही-साथ । | ||
+ | तड़पता रह गया मैं मलते ही हाथ ।। | ||
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+ | मेरी आँखों की पुतली कहाँ है । | ||
+ | बुढ़ापे की मेरी लकड़ी कहाँ है ।। | ||
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+ | कहाँ ढूँढ़ौं मुझे कोई बता दो । | ||
+ | मेरे बच्चो को बस मुझसे मिला दो ।। | ||
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+ | लगी है आग छाती में हमारे। | ||
+ | बुझाओ कोई उनका हाल कह के ।। | ||
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+ | मुझे सूना दिखाता है ज़माना । | ||
+ | कहीं भी अब नहीं मेरा ठिकाना ।। | ||
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+ | अँधेरा हो गया घर हाय मेरा । | ||
+ | हुआ क्या मेरे हाथों का खिलौना ।। | ||
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+ | मेरा धन लूटकर के कौन भागा । | ||
+ | भरे घर को मेरे किसने उजाड़ा ।। | ||
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+ | हमारा बोलता तोता कहाँ है । | ||
+ | अरे वह राम-सा बेटा कहाँ है ।। | ||
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+ | कमर टूटी, न बस अब उठ सकेंगे । | ||
+ | अरे बिन राम के रो-रो मरेंगे ।। | ||
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+ | कोई कुछ हाल तो आकर के कहता । | ||
+ | है किस बन में मेरा प्यारा कलेजा ।। | ||
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+ | हवा और धूप में कुम्हका के थककर । | ||
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+ | जो डरती देखकर मट्टी का चीता । | ||
+ | वो वन-वन फिर रही है आज सीता ।। | ||
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+ | कभी उतरी न सेजों से जमीं पर । | ||
+ | वो फिरती है पियोदे आज दर-दर ।। | ||
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+ | न निकली जान अब तक बेहया हूँ । | ||
+ | भला मैं राम-बिन क्यों जी रहा हूँ ।। | ||
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+ | मेरा है वज्र का लोगो कलेजा । | ||
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+ | मेरे जीने का दिन बस हाय बीता । | ||
+ | कहाँ हैं राम लछमन और सीता ।। | ||
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+ | कहीं मुखड़ा तो दिखला जायँ प्यारे । | ||
+ | न रह जाये हविस जी में हमारे ।। | ||
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+ | कहाँ हो राम मेरे राम-ए-राम । | ||
+ | मेरे प्यारे मेरे बच्चे मेरे श्याम ।। | ||
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+ | मेरे जीवन मेरे सरबस मेरे प्रान । | ||
+ | हुए क्या हाय मेरे राम भगवान ।। | ||
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+ | कहाँ हो राम हा प्रानों के प्यारे । | ||
+ | यह कह दशरथ जी सुरपुर सिधारे ।। | ||
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19:53, 13 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
कहाँ हौ ऐ हमारे राम प्यारे ।
किधर तुम छोड़कर मुझको सिधारे ।।
बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था।
इसी के देखने को मैं बचा था ।।
छिपाई है कहाँ सुन्दर वो मूरत ।
दिखा दो साँवली-सी मुझको सूरत ।।
छिपे हो कौन-से परदे में बेटा ।
निकल आवो कि अब मरता हु बुड्ढा ।।
बुढ़ापे पर दया जो मेरे करते ।
तो बन की ओर क्यों तुम पर धरते ।।
किधर वह बन है जिसमें राम प्यारा ।
अजुध्या छोड़कर सूना सिधारा ।।
गई संग में जनक की जो लली है
इसी में मुझको और बेकली है ।।
कहेंगे क्या जनक यह हाल सुनकर ।
कहाँ सीता कहाँ वह बन भयंकर ।।
गया लछमन भी उसके साथ-ही-साथ ।
तड़पता रह गया मैं मलते ही हाथ ।।
मेरी आँखों की पुतली कहाँ है ।
बुढ़ापे की मेरी लकड़ी कहाँ है ।।
कहाँ ढूँढ़ौं मुझे कोई बता दो ।
मेरे बच्चो को बस मुझसे मिला दो ।।
लगी है आग छाती में हमारे।
बुझाओ कोई उनका हाल कह के ।।
मुझे सूना दिखाता है ज़माना ।
कहीं भी अब नहीं मेरा ठिकाना ।।
अँधेरा हो गया घर हाय मेरा ।
हुआ क्या मेरे हाथों का खिलौना ।।
मेरा धन लूटकर के कौन भागा ।
भरे घर को मेरे किसने उजाड़ा ।।
हमारा बोलता तोता कहाँ है ।
अरे वह राम-सा बेटा कहाँ है ।।
कमर टूटी, न बस अब उठ सकेंगे ।
अरे बिन राम के रो-रो मरेंगे ।।
कोई कुछ हाल तो आकर के कहता ।
है किस बन में मेरा प्यारा कलेजा ।।
हवा और धूप में कुम्हका के थककर ।
कहीं साये में बैठे होंगे रघुवर ।।
जो डरती देखकर मट्टी का चीता ।
वो वन-वन फिर रही है आज सीता ।।
कभी उतरी न सेजों से जमीं पर ।
वो फिरती है पियोदे आज दर-दर ।।
न निकली जान अब तक बेहया हूँ ।
भला मैं राम-बिन क्यों जी रहा हूँ ।।
मेरा है वज्र का लोगो कलेजा ।
कि इस दु:ख पर नहीं अब भी य फटता ।।
मेरे जीने का दिन बस हाय बीता ।
कहाँ हैं राम लछमन और सीता ।।
कहीं मुखड़ा तो दिखला जायँ प्यारे ।
न रह जाये हविस जी में हमारे ।।
कहाँ हो राम मेरे राम-ए-राम ।
मेरे प्यारे मेरे बच्चे मेरे श्याम ।।
मेरे जीवन मेरे सरबस मेरे प्रान ।
हुए क्या हाय मेरे राम भगवान ।।
कहाँ हो राम हा प्रानों के प्यारे ।
यह कह दशरथ जी सुरपुर सिधारे ।।